Tuesday, 18 March 2014

भाषा का रुप परिवर्तन



भाषा चिरपरिवर्तनशील है। भाषा में परिवर्तन या विकास उसके पाँचों ही रुपों –ध्वनि ,शब्द, रुप, अर्थ और वाक्य में होता है। भाषा में परिवर्तन दो प्रमुख भागों में विभाजित है।
१.आभ्यन्तर  २. बाह्य                                                    
                   आभ्यन्तर वर्ग में भाषा की अपनी स्वाभाविक गति तथा वे कारण सम्मिलित है जो प्रयोज्या की शारीरिक तथा मानसिक योग्यता आदि सम्बन्धित स्थिति से सम्बन्ध रखते है । बाह्य वर्ग में वे कारण आते है , जो बाहर से भाषा को प्रभावित करते है।
१.आभ्यन्तर वर्ग- (क) प्रयोग से घिस जाना- अधिक प्रयोग के कारण धीरे-धीरे सभी चीजों की भाँति भाषा में भी स्वाभाविक रुप से परिवर्तन होता है। संस्कृत की कारकीय विभक्तियाँ इसी प्रकार धीरे धीरे घिसते घिसते समाप्त हो गई।
(ख) बल- जिस ध्वनि या अर्थ पर अधिक बल दिया जाता है, वह अन्य ध्वनियों या अर्थो को या तो कमजोर बना देते है या समाप्त कर देते है। इस प्रकार इनके कारण भी भाषा में परिवर्तन हो जाता है।
(ग) प्रयत्न लाघव- व्यक्ति कम से कम प्रयास से अधिक से अधिक काम करना चाहता है, इसी प्रयत्न लाघव के प्रयास से ही शब्दों को सरल बनाने या सरलता के लिए कभी तो बड़ा और कभी छोटा बना डालते है। कृष्ण का कन्हैया , कान्हा का किशन , गोपेन्द्र का गोबिन , स्टेशन का टेशन, प्लेटो से अफलातुन । प्रयत्नलाघव कई प्रकार से लाया जाता है,  स्वर लोप- अनाज से नाज, एकादश से ग्यारह, २.व्यंजन लोप- स्थाली से थाली, ३. अक्षर लोप- शहतुत से तुत ४. स्वरागम- स्काउट से इस्काउट, कर्म से करम , कृपा से किरिपा ५. व्यंजनागम- अस्थि से हड्डी ६. विपर्यय- वाराणसी से बनारस ७समीकरण- शर्करा से शक्कर, ७. विषमीकरण- काक से काग, ८. स्वतः अनुनासिक – श्वास से साँस, तथा कुछ अन्य जैसे- गृह से घर, वधु से बहु आदि।
(घ)मानसिक स्तर-्बोलने वालों के मानसिक स्तर में परिवर्तन होने से विचारों में परिवर्तन होता है। विचारों में परिवर्तन होने से अभिव्यंजना के रुप में परिवर्तन होता है। और इस प्रकार भाषा पर भी प्रभाव पड़ता है।
(ण)अनुकरण की अपूर्णता-अनुकरण प्रायः अपूर्ण होता है, होता यह है कि अनुकरण में अनुकर्ता कुछ भाषिक तथ्यों को छोड़ देता है, तथा कुछ को अपनी ओर से अनजाने ही जोड़ देता है। इस तरह अनुकरण में भाषा का परिवर्तन पनपता है।
अनुकरण की अपुर्णता के लिए भी कई कारण है-(१)शारीरिक विभिन्नता-ध्वनियों का उच्चारण अंगों के सहारे करते है। और सब उच्चारण अंग एक से नही होते, अतएव उनका अनुकरण पूर्ण नही हो पाता।

Friday, 7 March 2014

स्वर-प्रक्रिया


         
                             उदात्त और अनुदात्त शुद्ध और स्वतंत्र स्वर है। इन्हीं दोनों के मेल से स्वरित की उत्पत्ति होती है। इन सबके चिन्हों के आधार पर लक्षण निम्नलिखित प्रकार के है-
उदात्तः- अपूर्वो अनुदात्तपूर्वो वा अतद्धितः उदात्तः।
जिससे पूर्व कोई स्वर न हो, अथवा अनुदात्त पूर्व में हो, (स्वरित उत्तर में हो) एसा चिन्ह रहित अक्षर उदात्त होता है। --
अनुदात्त- अणोरेखयाअनुदात्तः ।   अक्षर के नीचे पड़ी रेखा से अनुदात्त स्वर का निर्देश किया जाता है।
स्वरित- उर्ध्व रेखया स्वरितः । अक्षर के ऊपर खड़ी रेखा से स्वरित का निर्देश किया जाता है।
उदात्तानुदात्तस्य  स्वरितः ।  प्रचय- स्वरितात् परो अतद्धित  एकयुति।
स्वरित से परे जिस या जिन अक्षरो पर कोई चिन्ह न हो , उन्हें एकयुति अथवा प्रचय कहते है।
स्वर शास्त्र में अक्षर शुद्ध स्वर वर्ण अथवा व्यंजन सहित स्वर का वाचन होता है। यद्यपि स्वर शास्त्र के अनुसार उदात्त आदि स्वर धर्म स्वर वर्णो के ही है। तथापि स्वर निर्देश प्रकरण में चिन्हों के ठीक ज्ञान के लिए व्यंजन विशिष्ट स्वरों का उल्लेख किया जाता है। उनके निर्देश से अभिप्राय तत्तत् अर्थो से ही है, व्यंजनों से नही । अष्टाध्यायी के अतिरिक्त अन्य प्राचीन स्वर शास्त्रों में स्वरित के अनेक भेद निहित है, वैदिक ग्रंथों में उनमे से कतिपय विशिष्ट स्वरितों में अंकन के लिए विभिन्न चिन्हों की व्यवस्था उपलब्ध होती है। यदि उदात्त के पश्चात के अनुदात्त के पश्चात पुनः उदात्त आवे तो वह अनुदात्त ही रहता है। प्रातिशाख्य आदि ग्रन्थों में नव प्रकार के स्वरितों का उल्लेख मिलता है। इनमें से मुख्यतया पाँच महत्वपूर्ण है।
१-संहितज अथवा सामान्य स्वरित- एक पद में अथवा अनेक पदों की संहिता में उदात्त से परे अनुदात्त को जो स्वरित होता है, उसे सामान्य स्वरित कहते है,
२. – जात्या- जो स्वरित अपनी जाति (जात्य, स्वभाव) से स्वरित होता है, अर्थात जो किसी उदात्त वर्ण के संयोग से अनुदात्त स्वरित भाव को प्राप्त नही होता , उसे जात्य स्वरित कहते है। तैत्तरीय प्रातिशाख्य में इसे नित्य स्वरित कहा है,  यह स्वरित पदपाठ में भी स्वरित ही बना रहता है । अभिनिहित, क्षैप्र , तथा प्रश्लिष्ट संधियों के फलस्वरुप उत्पन्न होने वाले स्वरित तत् तत् संधियों के नाम पर अभिनिहित, क्षैप्र तथा प्रश्लिष्ट स्वरित कहलाते है।
३. अभिनिहित- एकार तथा ओकार से परे जहाँ ह्रस्व अकार का बोध अथवा पूर्वरुप होता है, उस संधि को प्रातिशाख्यों में अभिनिहित संधि कहते है। इस संधि के कारण उदात्त एकार अथवा उदात्त ओकार ( चाहे वह स्वतंत्र रुप से हो अथवा संधि से बना हो) से परे अनुदात्त अकार का बोध अथवा पूर्व रुप ह्प्ने पर जो स्वरित होता है, उसे अभिनिहित संधि के कारण अभिनिहित स्वरित कहते है।
४. क्षैप्र- इ उ ऋ लृ के स्थान में अच् परे रहने पर जो य् र् व् ल् (यण्) आदेश रुप संधि होती है, उसे प्रातिशाख्यों में क्षैप्र संधि कहते है। इसी क्षैप्र संधि के अनुसार यहाँ उदात्त इकार उकार के स्थान में यण् आदेश होने पर उनमें अनुदात्त स्वर को स्वरित हो जाता है, उसे क्षैप्र स्वरित कहते
५.प्रश्लिष्ट- दो अर्थो के मिलने से जो संधि होती है, उसे प्रश्लिष्ट संधि कहते है। और इअस कारण होने वाला स्वरित प्रश्लिष्ट स्वरित कहलाता है।  वैसे प्रातिशाख्यों के अनुसार प्रश्लिष्ट संधि पाँच प्रकार की होती है, परन्तु स्वरित मेम केवल दो प्रकारों की (उदात्तह्रस्व+ अनुदात्तह्रस्व)्दीर्घ रुप संधि में देखा जाता है।
विशेषवक्तव्य- उदात्त और अनुदात्त स्वरों की प्रश्लिष्ट संधि दो प्रकार की होती है। एक वह जिसमें पूर्ववर्ण अनुदात्त हो, और उत्तरवर्ण उदात्त । एसी सभी प्रश्लिष्ट संधियों में दोनों स्वरों के स्थान में उदात्तरुप एकादेश होता है। दुसरी प्रश्लिष्ट संधि वह है जिसमें पूर्ववर्ण उदात्त हो और उत्तर वर्ण अनुदात्त । इन दोनों स्वरों के स्थान पर जो एकादेश होता है , वह शाखा भेद से भी उदात्त और कहीं स्वरित देखा जाता है , ऋग्वेद की शाकल शाखा में यह स्वरित ही होता है और इसे प्रश्लिष्ट स्वरित कहते है।