Thursday, 22 February 2018

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी


  जनन्या वात्सल्यं गरीयस्त्वं चानुभूतेरेव विषयः । जनन्याः स्नेहाधिक्यं स्निग्धा दृष्टि; गम्भीरः प्रेमलालनं च वर्णयितुम् कः प्रभवति ।
    यदा यक्षः युधिष्ठिरं प्रश्नमपृच्छत् ‘किंस्विद  गुरुतरा भूमेः ? ‘’ युधिष्ठिरः उत्तरत् – माता गुरुतरा भूमेः ‘ । जन्मभूमिश्च जननीव पालयति लालयति च । तस्याः प्रेम सार्वत्रिकं प्रति दानानपेक्षं च वर्तते । मरणान्तमपि जन्मभूः शरणं प्रयच्छति । सा खल्वस्य भूम्यमन्नं जलं वसु रत्नं च ददाति , अतएव सा अन्नदा , वसुन्धरा, रत्नगर्भा, चेति नामानि कीर्त्यते । यस्मिन देशे वयं निवसामः यत्र जन्म लब्धवन्तः यस्य जलमन्नं चोपभूज्य वयं पुष्य बलवन्तश्च संजाताः तस्य गरीयस्तव को न प्रत्येति । जन्मभूलोकान्पालयति कुपुत्रानप्यंके आरोपयति , देशद्रोहिभ्यो अप्याश्रयं ददाति , अलसेभ्यो अपि भोजनं प्रयच्छति , अपराधीनो अपि रक्षति । अतएव जनाः सदा जन्मभूमिं स्मरति । तद् दर्शन लालसया च भृशं तेषां चित्तं दूयते । देशभक्ताश्च स्वदेशस्य रक्षणार्थं स्वप्राणाण , धनानि स्वजनान् च हातुं सर्वदैव सभद्य लक्ष्यन्ते । बहवो देश भक्ता जन्मभूमि रक्षणार्थं स्वप्राणानपि नियण्छन्ति।
           वस्तु वस्तु संसारे जननी जन्मदातृत्वेन जन्मभूमिश्च जीवनदातृत्वेन गरीयस्यौ । उभयोगौरवभारं मानवो यावत्जीवं धारयति । अनयोः ऋषभारं मनुष्यैर्मातृभक्त्या जन्मभूमेषया चावतारयितुं  प्रयतितव्यं ।
            क्षुद्रपशुपक्षिणामपि जन्मभूमिं प्रति प्रेम परिलक्ष्यते । वनभूमिलालितो गजो न तथा राजगृहो सौख्यं अनुभवति यथा वनभूभागेषु  स्वर्गा अपि न तथा अमन्द मानन्दं विन्दन्ते प्राप्तादपंजरे यथा वनप्रान्तस्थवृक्षाणां कुलायेषु । अचेतना अपि वृक्षारोहन्ति निजजन्मभूमिवियुक्ता अन्येषु प्रदेशेष्वारोपितः
          अथर्ववेदस्य पृथिविसूक्तं मानवस्य जन्मभूमि प्रतिनैसर्गिकमनुरागं ललियया गिरा व्यनक्ति  ‘’माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्याः।‘’ निजजन्मभूमिं प्रति सत्यो अनुरागो अन्यदेशान् प्रति प्रीतिं नोपदिशति । अयं अन्यदेशान्प्रति स्नेहस्य सीमां विस्तारयति । अस्यादर्श्वाक्यन्तु 
‘’वसुधैव कुटुम्बकं ‘’ अतः स्वजन्मभूमि प्रशंसा अपि न देशभक्ति ; निजजन्मभूमिवदन्येषामपि जन्मभूवः सम्मानकरणं देशभक्तिर्नाम ।
         देशभक्तस्य चित्तं न स्वर्गे अपि ताहम् रमते याहद् निजजन्मवसुन्धरायाम् । तथापि न मातृसद्दशी विमाता सम्मान्यते । अत; एषाहः –‘’जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाद्पि गरीयसी’’ 

Monday, 15 January 2018

ऋग्वेद

ऋग्वेद प्राचीन साहित्य की सबसे प्राचीन रचना है । प्राचीनतम मनुष्य के मस्तिष्क तथा धार्मिक और दार्शनिक विषयों का मानव भाषा में सबसे पहला वर्णन ऋग्वेद में मिलता है ।मनुष्य की आदिम दशा के और भी चिह्न पाये जाते है । चारों वेदों में ऋग्वेद का स्थान मुख्य है ऋग्वेद अन्य वेदों की अपेक्षा अधिक प्राचीन है, तथा इसमें अन्य वेदों की अपेक्षा अधिक विषयों का सन्निवेश है । यजुर्वेद और सामवेद में याज्ञिक मंत्रों की प्रधानता है ।ऋग्वेद में वैदिक काल की सारी विशेषताओं के अधि विशद और पूर्ण वर्णन मिल सकते है ।
ऋग्वेद की भाषा उत्तर प्राचीन संस्कृत से बिल्कुल भिन्न है, ऋग्वेद के मंत्रों में सुन्दर कविता पाई जाती है ।वह कविता जो हिमालय से निकलने वाली गंगा नदी के समान ही पवित्र और नैसर्गिक है।  जिसमे कृत्रिमता नही है। तर्क शास्त्र से सुरक्षित तेजस्वी षड्दर्शनों एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को प्राप्त करने के लिये ऋग्वेद की तेजस्वी वाणी अत्यन्त सहायक सिद्ध होती है । वेद ईश्वर की वाणी और ज्ञान के अक्षत भंडार है ।        
                   वेद मंत्रों का संकलन बडे सुन्दर और वेज्ञानिक ढंग से किया गया है। एक विषय के कुछ मंत्रों के समुह को सुक्त या स्तोत्र कहते है ।ऋग्वेद इसी प्रकार के सुक्तों का संग्रह है , ऋग्वेद के कुल सुक्तों की संख्या लगभग ३०२८ है ।सबसे बडे सुक्त में १६७ मंत्र है, और सबसे  छोटे में केवल दो ।कुल मंत्रों की संख्या लगभग ३०,००० है ।सम्पूर्ण ऋग्वेद मंडलो , अनुवाको, सुक्तों और मंत्रों में विभक्त है ।ऋग्वेद में १० मंडल है, प्रत्येक मंडल में कई अनुवाक होते है और हर अनुवाक में अनेक सुक्त । वेद को ६अंगो सहित पढ़ना चाहिये, किसी मंत्र को उसके ऋषि , छंद और देवता को बिना जाने पढ़ने से पाप लगता है ।
                   ऋग्वेद के अधिकांश सूक्त देवताओं की स्तुति में लिखे गये है ।सबसे पहले अग्नि की स्तुति में लिखे हुवे सूक्त आते है, फिर इन्द्र के सूक्त , उसके बाद किसी भी देवता के स्तुति –विषयक सूक्त जिनकी संख्या सबसे ज्यादा हो , रक्खे जाते है ।    यदि दो सूक्तो में बराबर मंत्र हो तो बड़े छंद वाला सूक्त पहले लिखा जायगा , अन्यथा ज्यादा मंत्रो वाला सूक्त पहले लिखा जाता है । लगभग ७००-८०० सूक्तो का विषय देव-स्तुति है, बाकी २००-३०० सूक्तो में अन्य विषय आ जाते है । कुछ सूक्तो में शपथ शाप, जादू, टोना ,आदि का वर्णन है, कुछ सूक्तो में विवाह , मृत्यु आदि संस्कारो का वर्णन है दसवे मंडल में विवाह संबंधी सुन्दर गीत है, उपनयन संस्कार का नाम ऋग्वेद में नही है ।
          कुछ सूक्तो को पहेली सूक्त कहा जा सकता है । वह कौन है जो अपनी माता का प्रेमी है, या अपनी बहन का जार है । उत्तर- सूर्य ।द्युलोक के वाचक होने के कारण उषा और सूर्य भाई बहन है, जिन में प्रेम संबंध है ।सूर्य द्यो (आकाश) का प्रेमी भी है  । ‘माता के प्रेमी से मैने प्रार्थना की , बहिन का जार मेरी प्रार्थना सुने , इन्द्र का भाई और मेरा मित्र इत्यादि । गणित सम्बन्धि पहेलिया महत्वपूर्ण है ।
ऋग्वेद में एक द्युत सूक्त है, एक सूक्त में मेंढकों का वर्णन है, एक अरण्य सूक्त या वन सूक्त है । चोथे मंडल में घुड़दोड़ का जिक्र है । सरमा और पणियों की कहानी शायद नाटक की भाँति खेली जाती थी। सरमा एक कुतियाँ थी, जो देवताओं के गायों की रक्षा करती थी , एक बार पणि लोग गायों को चुरा ले गये, सरमा को पता लगाने भेजा गया । सरमा ने गायों को खोज निकाला , और इन्द्र उन्हें  छुडा लाये ।ऋग्वेद में एक कवियित्री का वर्णन है, जिसका नाम घोषा था ।उनके शरीर में कुछ दोष थे, जिन्हें उसने अश्विनीकुमारों को प्रार्थना करके ठीक करा लिया ।घोषा के अतिरिक्त विश्ववरा वाक् लोपामुद्रा आदि स्त्री कवियों के नाम ऋग्वेद में आते है ।
                   यज्ञों के अवसर पर ऋत्विक् लोग देवताओं की स्तुतियाँ करते थे ।ऋग्वेद को जानने वाला ऋत्विक ‘होता’ , यजुर्वेद को जानने वाला ‘अध्वर्यु’, और सामवेद को जानने वाला ‘उद्गाता’ कहलाता था ।अथर्वेद के ऋत्विक् को ‘बह्मा’ कहते थे ।

Sunday, 26 November 2017

संस्कृत में अनुवाद

                               
यह था छोटे छोटे वाक्यों का अनुवाद  ।मै पढ़ता हूँ  ।अहम् पठामि   ।मै खाता हूँ  । अहम् खादामि ।वह दौड़ता है । सः धावति  । घौड़ा दौड़ता है =  अश्वः धावति ।तुम पीते हो= त्वम् पिबसि।इस प्रकार छोटे वाक्यों का अनुवाद हमने सीखा।
अब थोड़े बड़े वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद करेगें   । इसके लिये हमें कारक का प्रयोग भी करना पड़ेगा  । कारक में सात विभक्तियाँ होती है  , यह हम पहले पड़ चुके है  ।
प्रथमा  -   ने
द्वितीया-  को
तृतीया- से, द्वारा
चतुर्थी-  के लिये
पंचमी- से
षष्ठी- का , की , के
सप्तमी- में, पर
संबोधन- हे, अरे
इस प्रकार कारक का अर्थ प्रत्येक विभक्ति के अर्थ के अनुसार किया जायगा  ।  तथा काल का प्रयोग भी होगा, भुत , भविष्य , वर्तमान   जो भी हो – वाक्य हे-
राम ने रावण को मारा – ने- प्रथमा, को- द्वितीया  , मारा- भुतकाल  ।
रामः रावणं  अताडयत   ।
पेड़ से पत्ता गिरा -   वृक्षेण पत्रं अपतत् ।
हम सब प्रातःकाल बगीचे में घुमने जाते है ।-  वयम् प्रातःकाले उद्याने भ्रमणं गच्छामः ।
मै सूर्य को नमस्कार करता हूँ- अहम् सूर्यं नमस्करोमि (नमामि) ।
राम श्याम को अपनी पुस्तक देता है-  रामः श्यामं स्वपुस्तकं ददाति ।
मैनें फुल को देखा ।     अहम् पुष्पं अपश्यम् ।
मै प्रातःकाल दौड़ता हँ ।    अहम् प्रातःकाले धावामि । 

      इस प्रकार पुरुष , काल . वचन . सभी बातों को ध्यान में रखते हुवे हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद कर सकते है ।

Tuesday, 7 November 2017

संस्कॄत में अनुवाद

          
हिन्दी से संस्कॄत में अनुवाद करने के लिये तीनो काल , भूत, भविष्य, तथा वर्तमान , कालों के प्रत्यय , तीनों वचन , एक वचन , द्विवचन , तथा बहुवचन  कारक परिचय , विभक्तियाँ ,प्रथमा से लेकर सप्तमी तक सातों विभक्तियाँ , आदि….. कुछ प्राथमिक बातों का ज्ञान होना आवश्यक है। इन सारी बातों का ज्ञान होने के पश्चात हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद करना सरल हो जाता है
          मै जाता हूँ ।   अहम् गच्छामि  ।
वर्तमान काल  में धातु इस प्रकार चलाई जाती है
                   एक वचन              द्विवचन          बहुवचन
उत्तम पुरुष      गच्छामि              गच्छावः            गच्छामः
मध्यम पुरुष      गच्छसि              गच्छथः             गच्छथ
अन्य पुरुष          गच्छति             गच्छ्तः              गच्छन्ति
इसी प्रकार जितनी भी धातुएँ है , अर्थात जितनी भी क्रियाएँ है, जैसे खाना, पीना, जाना उठना , बैठना , दोड़ना   इन सभी में ये प्रत्यय लगाये जाते है ।क्रिया उसे कहते है जिस कार्य को किया जाता है । कर्ता उसे कहते है जो कार्य को करता है  ।मैं जाता हूँ   - मैं कर्ता   जाता –क्रिया   गच्छ = जाना   मि   वः   मः  गच्छामि  इस प्रकार प्रत्येक क्रिया में यह प्रत्यय लगते है।
उत्तम पुरुष  एकवचन मैं   द्विवचन- हम दौनो    बहुवचन- हम सब
मध्यम पुरुष  एकवचन-तुम   द्विवचन- तुम दौनों    बहुवचन- तुम सब
अन्य पुरुष     एकवचन- वह(सर्वनाम,सभी)वे दौनों           वे सब
               अब देखिये  मैं जाता हूँ  - मैं उत्तम पुरुष और एकवचन है  मैं कर्ता है, यदि कर्ता उत्तम पुरुष और एकवचन है तो क्रिया में भी उत्तम पुरुष और एकवचन ही होगा ।मि उ.पु. एक.व. है ।एस प्रकार अहम् के साथ गच्छामि ही होगा ।  मैं जाता हूँ  - अहम् गच्छामि   ।
हम दौनों जाते है- आवाम् गच्छावः । हम सब जाते है- वयम् गच्छामः ।

तुम जाते हो-  त्वम् गच्छसि । तुम दौनों जाते हो – युवाम् गच्छथः । तुम सब जाते हो- युयम् गच्छथ ।  वह जाता है- सः गच्छति । वे दौनों जाते है- तौ गच्छतः । वे सब जाते है – ते गच्छन्ति  ।  इस प्रकार कर्ता यदि जिस पुरुष , जिस वचन और जिस काल का है, क्रिया में भी वही पुरुष, वही वचन और वही काल लगेगा। इति  ।

Saturday, 4 November 2017

स्वरों की स्थिति


अ, इ, उ, ओ, की स्थिति के बारे में समझाइये ?
अ-    स्वर के उच्चारण में जीभ का जो भाग व्यवह्रत होता है, उसके आधार पर उसे अग्र स्वर, पश्च स्वर, या मध्य स्वर  नाम देते है ।अतः जिव्हा के स्थान की दृष्टि से ‘अ’ मध्य स्वर है । जिव्हा का विशिष्ट भाग अधिक उठने से ‘अ’ संवृत है, तथा ओठों की स्थिति के अनुसार ‘अ’ उदासीन है , मात्रा की दृष्टि से ‘अ’ ह्रस्व स्वर है, कोमल तालु से उच्चरित होने के कारण ‘अ’ मौखिक स्वर है , ‘अ’ शिथिल स्वर है ।कुल स्वर मूल होते है , अर्थात उनके उच्चारण में जीभ एक स्थान पर रहती है , जैसे ‘अ’ मूल स्वर है, घोष है  । (‘अ’ आवृतमुखी , शिथिल, अग्र, विवृत)
इ-जीभ के स्थान की  दृष्टि से इ अग्र स्वर है । ओष्ठों की स्थिति की दृष्टि से ‘इ’ विस्तृत स्वर है , ‘इ’ ह्रस्व स्वर है, ‘इ’ अनुनासिक स्वर है, ‘इ’ अघोष है, ‘इ’ शिथिल है, तथा मूल स्वर है ।
उ-  जिव्हा के स्थान की दृष्टि से उ पश्च स्वर है, संवृत है, पूर्ण वृत्ताकार है, अघोष है, शिथिल है ।
ओ-  ओ पश्च स्वर है, अर्द्धसंवृत,  मात्रा की दृष्टि से प्लुत है,  ‘ओ’ श्रुति  कहा जाता है, अवधी तथा भोजपुरी क्षेत्र में औ का (अओ) उच्चारण होता है । अर्थात ओ वृतमुखी दृढ , पश्च, अर्द्धसंवृत है।
          इस प्रकार स्वरों की स्थिति को समझना वेदों की ऋचाओं , सूक्तों को पढ्ने में सहायक होता है  ।


Wednesday, 1 March 2017

श्री गणपति अर्थवशीर्ष



श्री गणपति    अर्थवशीर्ष
ऊँ भद्रम् कर्णेभिः इति शान्ति ;
ऊँ हरि ऊँ नमस्ते गणपतये  त्वम् एव प्रत्यक्षं तत् त्वम् असि, त्वम् एव केवलम् कर्तासि, त्वम् एव केवलम् धर्तासि, त्वम् एव केवलम् हर्तासि, त्वम् एव सर्वम् खलु इदम् ब्रह्मासि , त्वम् साक्षात् आत्मासि नित्यम् , ऋतम् वच्मि , सत्यम् वच्मि, अव त्वम् माम् , अव वक्तारम् अव श्रोतारम् , अव दातारम् , अव धातारम् , अवान् उचानम् अव शिष्यम् ,अव पश्चातात् , अव पुरस्तात् , अव च उत्तरातात् , अव दक्षिणातात् , अव च उर्ध्वातात् , अव अधरातात् , सर्वतो माम् पाहि पाहि समन्तात्, त्वम् वाड़्मयः, त्वम् चिन्मयः, त्वम् आनन्दमयः, त्वम् ब्रह्ममयः , त्वम् सच्चिदानन्द अद्वितीयो असि , त्वम् प्रत्यक्षम् ब्रह्मासि, त्वम् ज्ञानमयो विज्ञानमयो असि , सर्वम् जगत् इदम् त्वत्तो जायते, सर्वम् जगत् इदम् त्वत्तः तिष्ठति , सर्वम् जगत् इदम् त्वयि लयम् एष्यति , सर्वम् जगत् इदम् त्वयि प्रत्येति, त्वम् भूमिः आपो अनलो अनिलो नभः, त्वम् चत्वारि वाक् पदानि, त्वम् गुणत्रयातीतः , त्वम् काल त्रयातीतः , त्वम् देह त्रयातीतः , त्वम् मूलाधार स्थितो असि नित्यम्, त्वम् शक्ति त्रयात्मकः , त्वम् योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् , त्वम् ब्रह्मा, त्वम् विष्णुः त्वम् रुद्रः त्वम् इन्द्रः त्वम् अग्निः त्वम् वायुः त्वम् सूर्यः त्वम् चन्द्रमाः त्वम् ब्रह्मः  भूर्भुवः सुवरोम् ,गणादि पूर्वम् उच्चार्य वर्णादि तद् अनन्तरम् , अनुस्वारः पतरः , अर्धेन्दु लसितम् । तारेण रुद्धम् , एतद् तव मनुष्यरुपम् । गकारः पूर्व रुपम्, अकारो मध्यम् रुपम् , अनुस्वारः च अन्त्यरुपम्, बिन्दुः उत्तररुपम्, नादः सन्धानम्, संहिता सन्धिः । स एषा गणेश विद्या । गणक  ऋषि ; निवृद गायत्री छन्दः श्री महा गणपति दैवता ।ऊँ गं । गणपतये नमः । एकदन्ताय विद महे वक्र तुण्डाय धीमहि , तन्नो दन्ति प्रचोदयात् । एकदन्तम् चतुर्हस्तम् पाशम् अंकुश धारिणम् । अभयं वरदं हस्तैः बिभ्राणं मूषकध्वजम् ।रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्त वाससम् । रक्त गन्धानु लिप्ताड्‍गं रक्त पुष्पैः सुपूजितम् । भक्तानु कम्पिनं दैवं जगत् कारणम् उच्युतं । आविर्भूतं च सृष्टयादौ  प्रकृते; पुरुषात् परम् । एवं ध्यायन्ति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः । नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथ पतये नमस्ते अस्तु लम्बोदराय ऐकदन्ताय विघ्न विनाशिने शिवसुताय श्री वरद मूर्तये नमो नमः । एदत अथर्वशिरो यो अधीते स ब्रह्म भूयाय कल्पते । स सर्व विघ्नैः न बाध्यते । स सर्वतः सुखम् एधते । स पण्च महा पातकोप पातकात् प्रमुच्यते । सायम धीयानो दिवस कृतं पापं नाशयति । सायं प्रातः प्रयुण्जानो अपापो भवति । धर्मार्थ काम मोक्षं च विन्दति । इदम् अथर्वशीर्षं अशिष्याय न देयम् । यो यदि मोहाद् दास्यति स पापीयान् भवति । सहस्त्र आवर्त नाद्यं यं कामं अधीते तं तम् अनेन साधयेत । अनेन गणपतिम् अभिषिण्चति स वाग्मी भवति । चतुर्थ्याम् अनश्नण्जपति स विद्यावान भवति । इति अथर्वण वाक्यम् ।ब्रह्माद्या चरणं विद्यात् । न बिभेति कदाचनेति । यो दुर्वाड़्कुरैः यजति स वैश्रवणोपमो भवति । यो लाजै; यजति स यशोवान भवति । स मेधावान् भवति । यो मोदक सहस्त्रेण यजति । स वाण्छितफलम् अवाप्नोति । यः साज्य समिद्भिः यजति स सर्वम् लभते । अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्य वर्चस्वी भवति । सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जपत्वा सिद्ध मन्त्रो भवति । महाविघ्नात् प्रमुच्यते । महापापात् प्रमुच्यते । महादोषात् प्रमुच्यते । स सर्व विद् भवति । स सर्व विद् भवति । य एवम् वेद । ऊँ भद्रड़्कर्णेभिः इति शान्तिः ।
                                      इति श्री गणपति अथर्वशीर्षम्

Thursday, 10 March 2016

यास्क का आख्यातज सिद्धान्त



शब्दों का आख्यातज सिद्धान्त का अभिप्राय है कि क्या सभी शब्द धातुओं से बने है या स्वतः निष्पन्न होते है।यास्क इस मत के पोषक है कि सभी शब्द आख्यातज है , जिसे सिद्ध करने के लिए ही सम्पूर्ण निरुक्त की रचना हुई है ।सभी शब्द धातुज है, इस सिद्धान्त के प्रतिपादक है  वैयाकरणाचार्य  शाकटायण     
शाकटायण-    बहुत  अच्छे वैयाकरण है ।इनके सिद्धान्त के अनुसार ही उणादि सूत्रों की रचना हुई है ।जिसकी मूल भित्ति यही है कि सभी शब्दों की व्युत्पत्ति सम्भव है । “सर्वनामधातुजम्’  समस्त निरुक्तकार इस पक्ष में है,  जिसमें यास्काचार्य भी है । वे कहते है ‘नत्वेव न निर्ब्रुयात्’ 
गार्ग्य-    प्राचीन वैयाकरण है । उनके सम्मत में कुछ शब्द धातुज है और कुछ रुठ़   ।जिनकी जढ़ में धातु को ढुढना अनावश्यक है ।इसी के साथ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि शब्द में धातु ढुँढते समय उस शब्द का अर्थ धातु के संवादी होना चाहिये ।इनके मत से सहमति रखने वाले पाणिनी व पतण्जलि है ।पतण्जलि के अनुसार  उणादयो व्युत्पन्नानि प्रातिपादिकानि  । उणादि के प्रतिपादिक प्रकृति प्रत्यय रहित है । अर्थात वे शब्द रुढ़ है  , उनमें धातु प्रत्यय ढुढने की आवश्यकता नही है ।इसी पक्ष में भाषा विज्ञानी भी है, वे भी प्रत्येक शब्द के पीछे धातु की सत्ता नही देखते ।        इस प्रकार गार्ग्य  व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न शब्दों की विभाजन रेखा बनाकर अपनी पुष्टी के प्रमाण देते है ।
(१)आक्षेप  गार्ग्य-    अश्व  शब्द देखा जाये । अश्व में अश् धातु है, जिसका अर्थ तय करना होता है , अर्थात जो भी रास्ता तय करता है या व्याप्त करता है , उसे अश्व कहना  पड़ेगा, जो कि व्यवहार में नही है। इस दृष्टि से शब्द में धातु ढुँढने पर जबर्दस्त  अतिव्याप्ति  दोष आ जायेगा ।
समाधान यास्क – शब्द मूलतः  धातु से उत्पन्न होते ही है , किन्तु बाद में कुछ रुढ़िता आ जाती है। जैसे – अश्व शब्द मूलतः अश् धातु से ही निष्पन्न है, किन्तु यह घोड़ा अर्थ में रुढ़  हो गया है । व्यवहार में ऐसे अनेक शब्द है । तक्ष का अर्थ है छिलना, कम करना या काटना । यहाँ सभी छिलने वाले को तक्षा न कहकर बढ़ई को तक्षा कहा गया है ।इसी प्रकार सभी घुमने वाले को भ्राजक कहना चाहिये , (आप भी परिव्राजक को परि+व्रज से निष्पन्न मानते है।) किन्तु केवल सन्यासियों को ही परिव्राजक कहा जाता है ।एवं सत्यनुपालम्भ एव भवति  लौकिक परम्परा ही इसका निर्णय करती है ।
(२)आक्षेप- यदि समस्त शब्द धातु से बनते है ,तो जिन जिन क्रियाओं के साथ उस शब्द का सम्बन्ध आता है, उस उस क्रिया के अनुसार उसके अनेक नाम होना चाहिये। स्तम्भ – एक स्थान में रहने के कारण  खम्भे को स्तम्भ कहते है ।अब छेद में सोने के कारण उसे “दरशया” भी होना चाहिये , इसी प्रकार वह अपने ऊपर दुसरी लकड़ी को धारण करता है, अतः ‘आसण्जगी’ नाम भी होना चाहिये। संक्षेप में वस्तु के प्रत्येक व्यवहार को देखकर क्रियानुसार अनेक नाम हो सकेगे। यहाँ अनुभव नही है, अतः अन्त गलत है।
समाधान- ऐसा साधारणतः नियम है कि प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति’  नाम प्रधान क्रिया को लेकर ही लागु होते है ।उसकी प्रत्येक छोटी मोटी क्रिया से नाम पड़ना आवश्यक नही है , इसलिये प्रत्येक शब्द की क्रियाओं को लेकर ही नाम बनाना भी आवश्यक नही है ।जैसे तक्षा में अनेक क्रियाओं से सम्बन्ध होने पर भी उसका छिलने की क्रिया से ही तक्षा नाम पड़ा । इस विषय में परिव्राजक , भूमिज, जीवन आदि उदाहरण भी निरुक्तकार ने दिये है।
(३)आक्षेप- यदि प्रत्येक शब्द में धातु है तो सही धातु से सही प्रत्यय होने पर व्याकरण शुद्ध सही रुप में मिलना चाहिये, जो नही मिलता ।जैसे पुरुष में आपकी कल्पना है कि पुर्+ शी से पुरुष और तृद् + अन् से तृण बना । वस्तुतः उसकी जड़ में क्रिया प्रत्यय की और आपका ध्यान है तो वे शब्द क्रमशः पुरिशय व तदनि बनना चाहिये, किन्तु पुरुष तर्दन आदि शब्दों को देखकर विशिष्ट धातु और प्रत्यय की कल्पना नही होती , अतः उन्है रुढ़ व अधातुज या अव्युत्पन्न मानना आवश्यक है ।
समाधान- कुछ ही प्रयोग ऐसे है जिन्हैं देखते ही धातु प्रत्यय की कल्पना ठीक नही आती , पर वे प्रयोग में कम आते है । ऐसे अव्युत्पन्न शब्दों का संग्रह ऐकपदिक काण्ड में किया गया है-सन्त्यल्प प्रयोगाः’  इसलिये इनको धातुज न कहना उचित नही । ऐसे हजारों शब्द है  जो पूर्ण रुप से धातु से सिद्ध होते है ।
(४)आक्षेप- यदि प्रत्येक शब्द धातुज है तो किसी शब्द का किसी धातु से व्यवहार में प्रयोग करने पर उसके मूल में अनेक विचार करना पड़ते है, और वे व्यर्थ है ।मान लिया कि पृथिवि (पृथ्-फैलना) धातु से (पृथ्-विस्तार) निष्पन्न है  । आप सोचते रहिये कि पृथिवि को किसने और कहाँ बैठकर फैलाया।एनां अप्रथयिष्यत् बिनाधारश्च ।
समाधान- यास्क कहते है कि पृथिवि देखने मेंतो पृथु अर्थात् फैली हुई लगती है या भले ही उसको किसी ने न फैलाया हो , आखिर वस्तु को देखकर ही नाम देते है ।दृष्ट प्रवादा उपलक्ष्यन्ते
इस सिद्धान्त में अब कोई आपत्ति नही है ।
(५)गार्ग्य फिर आक्षेप करते है कि शाकटायण कभी कभी शब्दों की इस प्रकार रचना बताते है कि वह हास्यास्पद हो जाती है । छोटे से शब्द में खण्ड करके निष्पत्ति करते है ।  क्रिया का सम्बन्ध न होने पर भी उसको बनाने की कौशीश करते है । जैसे सत्य की निष्पत्ति में अस् धातु से सत् ‘इ’ धातु का निजन्त रुप ‘य’ प्रयोजक के रुप में । इन दोनों का सत्य से क्या अर्थ हो सकता है ।                    समाधान- अनेक क्रियाओं से खण्ड खण्ड में व्युत्पत्ति करना यह उचित ही है । केवल शब्द की क्रिया का अर्थ से मेल रखना आवश्यक है । ‘यः अनन्विते अर्थे संस्कारस्य तेन ग्रह्य
जो असम्बद्ध अर्थ में बनावट करते है वे उस तरह बनावट से निन्दनीय है ।
(६)आक्षेप- धातुज सिद्धान्त वालों के यहाँ नाम पहले व क्रिया बाद में पढ़ी जाती है । बाद में होने वाली क्रिया के आधार पर पहले नाम कैसे पड़ सकता है । नाम तो क्रिया को देखकर पड़ना चाहिये । अतः यह ‘धातुज सिद्धान्त’ कार्यकारण भाव की दृष्टि से भी गलत है।
समाधान- व्यवहार में यह देखा जाता है कि बाद में होने वाली क्रिया के आधार पर ही पहले वस्तु का नाम रखा जाता है ।यह घटना कुछ शब्दों के साथ होती है, कुछ के साथ नही ।जैसे- बिल्वाद- एक पक्षी का नाम । यह पक्षी जन्मते ही तो बेल नही खाता  किन्तु आप भी बेल खाने की क्रिया से पहले ही उसे बिल्वाद कहते है ।इसी प्रकार लम्बचूड़क पक्षी की चोटी लम्बी तो बहुत बाद में होती है , किन्तु जन्मते ही उसे लम्बचूड़क कहा जाता है । अतः क्रिया से पहले ही नाम पड़ जाता है , और इसका विरोध आप भी नही करते 
                   तात्पर्य यह है कि प्रत्येक शब्द के मूल में कोई न कोई क्रिया अवश्य है , और अर्थानुसार शब्द की मूल क्रिया को देखकर निर्वचन करना चाहिये ।
          अतः कोई आक्षेप नही रहता तब ‘सर्वनाम् धातुजम्’ यह सिद्धान्त स्वीकार ही कर सकते है ।           आधुनिक भाषा विज्ञान का अपना लश्य है कि प्रित्येक शब्द के मूल का पता लगाये बिना उसे रुढ़ कहकर छोड़ न दिया जाय  । सत्य तो यही है कि ‘यास्क ही प्रथम भाषाशास्त्री है’