Friday, 27 December 2013

संज्ञा-विचार


                                 
वाक्य भाषा का आधार है, और शब्द वाक्य का। संस्कृत में शब्द दो प्रकार के होते है, एक तो एसे जिनका रुप वाक्य के और शब्दों के कारण बदलता रहता है, और दुसरे ऐसे जिनका रुप सदा समान ही रहता है। न बदलने वालों में ‘यदा’  ‘कदा’ आदि अन्वय है, तथा ‘कर्तुम’  ‘गत्वा’ आदि कुछ क्रियाओं के रुप है। बदलने वालों शब्दों में संज्ञा, विशेषण, सर्वनाम, क्रिया आदि है।
                   हिन्दी की भांति संस्कृत में तीन पुरुष होते है, -  १,उत्तम पुरुष, २, मध्यम पुरुष और ३. प्रथम पुरुष । प्रथम पुरुष को अन्य पुरुष भी कहते है। हिन्दी में केवल दो वचन होते है- एकवचन और बहुवचन । किन्तु संस्कृत में इसके अतिरिक्त एक द्विवचन भी होता है। जिससे दो चीजों का बोध कराया जाता है। सभी संज्ञाएँ अन्य पुरुष में होती है।
                   संज्ञा के तीन लिंग होते है- पुल्लिंग , स्त्रीलिंग , तथा नपुंसकलिंग । संस्कृत भाषा में यह लिंग-भेद किसी स्वाभाविक स्थिति पर निर्भर नही है। ऐसा नही है कि सब नर –वस्तुएँ पुर्ल्लिंग शब्दों द्वारा दिखाई जाए , और मादा वस्तुएँ स्त्रीलिंग शब्दों द्वारा , और निर्जीव वस्युएँ नपुसंकलिंग शब्दों द्वारा । उदाहरणार्थ स्त्री का अर्थ बताने के कई शब्द है- स्त्री, महिला, गृहिणी, दार, कलत्र आदि।परन्तु ‘दार’ शब्द पुर्ल्लिंग है} ‘कलत्र’ शब्द नपुसंकलिंग है।  इसी प्रकार निर्जीव ‘शरीर’ का बोध कराने के लिए कई शब्द है- तनु’ स्त्रीलिंग, ‘देह’ पुर्लिंग , ‘काय’  पुर्लिंग, और शरीर  नपुसंकलिंग, ।   कई शब्द ऐसे है जिनके रुप एक से अधिक लिंगों में चलते है।परन्तु अधिकांश ऐसे शब्द है जो एक ही लिंग के है – या तो पुर्ल्लिंग या स्त्रीलिंग या नपुसंकलिंग है। जैसे- पुत्रः, पुस्तकम्, कुसुमम्, लता, वधु आदि।  
                             हिन्दी में कर्ता कर्म आदि सम्बन्ध दिखाने के लिए ‘ने’ ‘को’ ‘से’ आदि शब्द संज्ञा के पीछे अथवा सर्वनाम के पीछे जोड़ दिए जाते है। जैसे- गोविन्द ने मारा, गोविन्द को मारा, तुमने बिगाड़ा, तुमको डाँटा आदि। किन्तु संस्कृत में इन सन्बन्धों को दिखाने के लिए संज्ञा या सर्वनाम आदि का रुप ही बदल देते है , तथा गोविन्द ने ,की जगह- गोविन्दः , गोविन्द को की जगह- गोविन्दम्, और गोविन्द का की जगह- गोविन्दस्य।इस प्रकार एक ही शब्द के कई रुप हो जाते है।ये रुप विभक्ति द्वारा दिखाए जाते है।        
                                      जब किसी शब्द में विभक्ति के प्रत्यय नड़ लगे रहते तो ,उसे प्रातिपदिक कहते है। संस्कृत में प्रातिपदिक पहले दो भागों में बाँटे जाते है- (१) स्वरान्त और {२} व्यण्जनान्त । स्वरान्त में प्रायः सभी अकारान्त शब्द पुर्ल्लिंग तथा नपुसंकलिंग में होते है। आकारान्त शब्द स्त्रीलिंग में होते है।
                   व्यंजनान्त प्रातिपदिक प्रायः ण म य इन वर्णो को छोड़कर सभी व्यंजनों में अन्त होने वाले पाए जाते है ।                                                                                         

Saturday, 21 December 2013

उच्चारण स्थान


         
वर्णो का उच्चारण मुख के अवयवों से किया जाता है। जिस वर्ण के उच्चारण में जिस विशेष अंग का काम पड़ता है, वह अंग उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहलाता है।
हमारे वर्णो के उच्चारण स्थान इस प्रकार है-
अ आ विसर्ग- क ख ग घ ड़ ह  - कण्ठ
इ ई ए -         च छ ज झ अ श -  तालु
  र -        ट ठ ड ढ ण ष       -  मूर्धा
लृ ल -         त थ द ध न स      -   दाँत
उ ऊ -          प फ ब भ म     -      ओंठ
                   अ म ण न ड़      - इनके उच्चारण में नासिका की भी सहायता आवश्यक है। इस प्रकार अ के उच्चारण स्थान तालु और नासिका दोनों है,    ड़ के कण्ठ और नासिका इत्यादि।
  और     -  कण्ठ और तालु
  और     -   कण्ठ और ओंठ
जिव्हामुलीय   -   का स्थान जिव्हा की जड़
अनुस्वार       -    का स्थान नासिका है।
                             एक ही स्थान से निकलने वाले  वर्ण ‘सवर्ण’ कहलाते है। भिन्न स्थानों से उच्चारण किए हुए वर्ण परस्पर ‘असवर्ण’ कहलाते है।    

Wednesday, 18 December 2013

स्वर किसे कहते है ?


‘स्वर’ का अर्थ है, ऐसा वर्ण जिसका उच्चारण अपने आप हो सके, जिसको उच्चारण के लिए दूसरे वर्ण से मिलने की आवश्यकता न हो। स्वरों का दूसरा नाम ‘अच्’ भी है।
                                              व्यंजन
ऐसे वर्ण जिसका उच्चारण बिना किसी दूसरे वर्ण – अर्थात् स्वर से मिले बिना नही किया जा सकता , व्यंजन कहलाते है।ऊपर ‘क’ से लेकर ‘ह’ तक के सारे वर्ण व्यंजन कहलाते है। क में अ मिला हुआ है। इसका शुद्ध रुप केवल क् होगा। व्यंजन का दूसरा नाम ‘इत्’ भी है,इसी कारण व्यंजनमूलक चिन्ह को भी ‘इत्’ कहते है।
स्वर तीन प्रकार के होते है- १, ह्रस्व २, दीर्घ  ३,  मिश्रविकृत दीर्घ।  मिश्रविकृत दीर्घ किन्हीं दो मिश्र स्वरों के मिल जाने से बनता है, जैसे अ+ इ= ए। स्वर के उच्चारण में यदि एक मात्रा समय लगे तो वह ह्रस्व कहलाता है।जैसे –अ, और यदि दो मात्रा समय लगे तो दीर्घ कहलाता है, जैसे- आ, । मिश्र विकृत स्वर दीर्घ होते है।
व्यंजनों के भी कई भेद है- १, स्पर्श   २,  अंत;स्थ  ३, उष्म   ४,  परुष व्यंजन   ५,  मृदु व्यंजन। 
क से लेकर म तक के वर्ण ‘स्पर्श’ कहलाते है।इसमें  कवर्ण आदि पाँच वर्ग है। य र ल व अंत;स्थ है, अर्थात स्वर और व्यंजन के बीच के है। श ष स ह ‘उष्म’ है,अर्थात इनका उच्चारण करने के लिए भीतर से जरा अधिक जोर से श्वास लानी पड़ती है। पाँचों वर्गो के प्रथम और द्वितीय अक्षर (क, ख, च, छ,ट, ठ,त, थ, प, फ,) तथा श, ष, स, वर्णों को ‘परुष’ व्यंजन और शेष को मृदु व्यंजन कहते है।
                                                          विसर्ग
विसर्ग को वस्तुतः अघोष ‘ह’ समझना चाहिए। यह सदा किसी स्वर के बाद आता है।यह स् अथवा र् का एक रुपान्तर मात्र है। किन्तु उच्चारण की विशेषता के कारण इसका व्यक्तित्व अलग है।

Friday, 13 December 2013

अक्षरों का ज्ञान


महर्षि पाणिनि ने अक्षरों को इस क्रम में बाँधा है-
१.अ इ उ ण् २.ऋ लृ क् ३. ए ओ ड़् ४. ऐ औ च् ५.ह य व र ट् ६.लञ् ७.ञ म ड़् ण न म् ८. झ भ ञ् ९. घ ड़ ध ष् १०. ज ब ग ढ़ द श् ११. ख फ छ ठ थ च ट त व् १२.क प य् १३. श ष स र् १४. ह ल्
                   यही चौदह सूत्र माहेश्वर सूत्र कहलाए। क्योंकि ये महर्षि पाणिनी को महेश्वर की कृपा से प्राप्त हुए थे। इनको प्रत्याहार सूत्र भी कहते है। क्योंकि इनके द्वारा बड़ी सरलता से सूक्ष्म रीति से अक्षरों का बोध हो जाता है। पाणिनी ने इन सूत्रो के आधार पर स्वरों एवं व्यंजनों को पहचान कर उन्हें अलग- अलग किया। ऊपर के वर्ण हल् है, वे इत् कहलाते है। जैसे- ण् क् आदि ।
कोई वर्ण लेकर उसके साथ यदि इत् जोड़े तो उस अक्षर के और उस इत् के बीच के सभी वर्णो का बोध हो जाता है। उन्होंने स्वरों और व्यंजनों की सहायता से अपने द्वारा निर्मित सूत्र बनाकर शब्दों का निर्माण किया। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है, उन्होंने सबसे प्रथम संस्कृत व्याकरण की रचना की, फिर व्याकरण की सहायता से संस्कृत भाषा का निर्माण हुआ।महर्षि पाणिनी व्याकरण के सबसे प्रथम प्रणेता है  सबसे प्रथम संस्कृतभाषा का उद् भव हुआ ,संस्कृत के द्वारा सभी भाषाओं का निर्माण हुआ।हिन्दी, उर्दू, मराठी, बांग्ला, जर्मनी, लैटिन, तथा अन्य सभी भाषाएँ संस्कृत से ही निकली है। आज संसार में जितनी भी भाषाएँ बोली या सुनी जाती है। बड़ी सरलता से हम उस भाषा का प्रयोग करते है। इन सबमें पाणिनी का कितना योगदान रहा है, इस बात का हम अनुमान भी नही लगा सकते।
कितना कठिन और कितना अद् भूत कितना विस्मयकारी काम उन्होंने सबके लिए किया है।
डमरु बजाने पर उन शब्दों को सुनना , डमरु से निकलने पर उन शब्दों को याद रखना , फिर उसमे से स्वर और व्यंजन को पहचानना।फिर व्यंजन में स्वरों को जोड़कर शब्द का निर्माण करना। कितना आश्चर्य में डालने वाला काम है।कितने महान थे महर्षि पाणिनी, और कितना महान था उनका संस्कृत व्याकरण ।  

Tuesday, 10 December 2013

संस्कृत शब्द का अर्थ


संस्कृत शब्द का अर्थ है- संस्कार की हुई , परिमार्जित शुद्ध वस्तु।संस्कृत शब्द अपने आप मे, शुद्धता और पवित्रता लिए हुए है, अत; संस्कृत भाषा परिमार्जित और शुद्ध भाषा है, यह देवों की भाषा है, सभी भाषाओं की जननी है। अन्य सभी भाषाएँ संस्कृत से ही निकली है।‘संस्कृत’ शब्द से आर्यों की साहित्यिक भाषा का बोध होता है। यह भाषा प्राचीन काल से आर्य पंडितों की बोली थी, और उनके ही द्वारा चिरकाल तक आर्य विद्वानों का परस्पर व्यवहार होता था।आर्य सभ्यता का परिचय देने वाले अधिकांश ग्रन्थ इसी भाषा मे है।
व्याकरण का अर्थ है- किसी वस्तु के टुकड़े टुकड़े करके उसका ठीक स्वरुप दिखाना। यदि देखा जाय तो प्रत्येक भाषा वाक्यों का समूह है। वाक्य कोई बड़े होते है, कोई छोटे ।बड़े वाक्य बहुधा छोटे-छोटे वाक्यों के सुसम्बद्ध समूह होते है।वास्तव में वाक्य ही भाषा का आधार है।वाक्य शब्दों का समुह होता है।प्रत्येक शब्द में कई वर्ण होते है, जिनको अक्षर भी कहते है।
                   संस्कृत भाषा में जिन अक्षरों का उपयोग होता है, वे ये है-
अ, इ, उ, ऋ, लृ     - ह्र्स्व
ए, ऐ, ओ, औ    -     मिश्रविकृत  दीर्घ                 स्वर
आ, ई, ऊ, ऋ      -     दीर्घ                               
                             व्यंजन             
क, ख, ग, घ, ड़        -कवर्ग
च, छ, ज, झ, ण       -चवर्ग                              स्पर्श
ट, ठ, ढ, ड , ण         -टवर्ग
त, थ, द, ध, न          -दवर्ग
प, फ, ब, भ, म         -पवर्ग 
य, र, ल, व              -अन्तस्थ
श, ष, स, ह             -उष्म वर्ण
                             -अनुस्वार
                             -अनुनासिक