Sunday, 14 September 2014

हिन्दी दिवस पर विशेष


हम हिन्दी भाषी है। हिन्दुस्तान हमारा देश है।हिन्दी हमारे देश की सर्वोत्कृष्ट भाषा मानी जाती है। यह हमारी मातृभाषा है।हमें अपने देश पर अपनी भाषा पर गर्व है।हिन्दी एक उत्कृष्ट भाषा है। हिन्दी साहित्याकाश में अनेक देदीप्यमान नक्षत्र उदित हुए, अनेक प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, साहित्यकार ,इतिहासकार एवं कवि हुए, जिन्होंने अपने देश का परिवेश , यहाँ की संस्कृति,यहाँ की सभ्यता , छोटे छोटे गाँवों का वातावरण ,यहाँ की धुल मिट्टी सब कुछ अत्यन्त सरल एवं मर्मस्पर्शी भाषा में अपने भावों को अभिव्यक्त किया।तथा हिन्दी भाषा सूत्र में प्रेम सहित ज्ञान मालिका पिरोई गई है, जो साहित्य प्रेमियों के ह्रदय कमल में धारण करते ही आनन्द लहरियों को प्रवाहित करेगी।हिन्दी हमारी मातृभाषा है,इन साहित्य प्रेमियों ने अपना सम्पूर्ण जीवन माता की सेवा में न्यौछावर कर दिया।माँ की सेवा में एक समर्पण भाव से जो भी अभिव्यक्त किया, उनकी साहित्यिक भाषा दिल को अन्दर तक छु जाती है।उनकी कहानियों में हमारी संस्कृति झलकती है, हमारी संस्कृति को सहेज कर रखना हिन्दी की बहुत बड़ी देन है।
                             किन्तु हमारा यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है,हम अपनी संस्कृति को खोते जा रहे है, अपनी भाषा को भुलकर दुसरे देश की भाषा को अधिक महत्व दे रहे है।हम अपना दैनिक हिन्दी का अखबार भी हिन्दी भाषा में नही पड़ सकते,उसके साथ अँग्रेजी शब्दों को पढ़ना मजबुरी हो गई है। ये शब्द न१ पर चलने वाला हिन्दी अखबार नई दुनिया से है-एक्वेरियम,एक्जीबिशन,्कंसेप्ट,्ग्लोबलाइजेशन  कांनक्लेव  इस प्रकार के अनेक शब्द है जो हम नित्य प्रति पढ़ते है।दुनिया में जितने भी देश है,वहाँ अपनी भाषा में व्यवहार करने पर लोग गर्व महसुस करते है, दैनिक व्यवहार में अपनी ही भाषा ,अपने देश की भाषा बोली जाती है।पुरे संसार में एकमात्र भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ हिन्दी को गौण तथा इँगलिश को प्रमुख भाषा माना जाता है। यहाँ पर इँगलिश बोलने पर गर्व महसुस किया जाता है।बच्चों से अधिक माता पिता को गर्व महसुस होता है।स्कुलों में हिन्दी की जगह इँगलिश पर अधिक ध्यान दिया जाता है।हमारी शिक्षा प्रणाली पुरी तरह दुषित हो गई है।कितने आश्चर्य एवं दुख की बात है, कि हम अपनी माता को निस्सहाय, निरुपाय अवस्था में छोड़कर दुसरों की सेवा में लगे हुवे है।अपनी माँ के घावों को सहलाने के लिए हमारे पास समय नही है।आज उन साहित्यकारों की आत्माएँ भी धार-धार रोती होगी ।जिनके हिन्दी भाषा रुपी सहेजे हुए पुष्प पैरों तले कुचले जा रहे है।
                                      अन्त में मै हिन्दी भाषा को नमन करती हुँ, अपने हिन्दुस्तान को नमन करती हुँ, तथा उन सभी साहित्यकारों को नमन करती हुँ, मै हिन्दी एवं संस्कृत में हमेशा लिखती रहुँगी।जय हिन्द
                            

                                     

Wednesday, 16 July 2014

वेदान्त दर्शन के अनुसार सृष्टि प्रक्रिया

         
सृष्टि एक लीला है और इस लीला का आदि एवं अवसान बिन्दु ब्रह्म ही है। तैत्तिरीयोपनिषद –
                   ‘यतो वा इमानि वृत्तानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयत्यमिसविश्यन्ति तद्विविज्ञातत्व तत् ब्रह्मेदी’ । अर्थात् यह संसार जिससे पैदा होता है, पैदा होकर पलता एवं पल्लवित होता है। तथा नाश होने पर जहाँ विलीन होता है, उसे जानो वह ब्रह्म ही है।सृष्टि के विषय में यही वेदान्त का निर्णय है।
                             शंकर कहते है कि इसका कोई प्रयोजन नही, ईश्वर केवल लीला के लिए ही सृष्टि करता है। वह इसका स्वभाव ही है।जैसे मनुष्य के शरीर में श्वास प्रश्वास चलते रहते है।उसी प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश होते रहते है।
तमोगुण प्रधान विशेष व्यक्ति से युक्त ब्रह्म ही सृष्टि का कारण है।उससे सर्वप्रथम सूक्ष्मतम आकाश की उत्पत्ति होती है।क्रमशः आकाश से सूक्ष्मतर वायु,  वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। सृष्टि में जड़ता का प्राधान्य है।अतः उसके कारण ईश्वर को भी तमोगुण से युक्त विक्षेपशक्ति से ध्वनित माना जाता है।ये तीनों तत्व अत्यन्त सुक्ष्म हौते है।और व्यक्त नही होते , अतः इन्है सुक्ष्मभूत या तन्मात्रा कहा जाता है। इन तन्मात्राओं में अपने कारण से तीनों गुण आ जाते है।
                   इन तन्मात्राओं के सात्विक अंश से पृथक पृथक पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है।आकाश तन्मात्रा से नेत्र, वायु तन्मात्रा से स्पर्श , अग्नि तन्मात्रा से चक्षु, जल तन्मात्रा से जिव्हा, पृथ्वी तन्मात्रा से प्राण इन्द्रिय की उत्पत्ति होती है। इन पाँचों का निवास स्थान क्रमशः वर्ण त्वचा , नेत्र, जिव्हा तथा नासिका में है। और ये क्रमशः शब्द, स्पर्श, रुप, रस गन्ध का अनुभव कराती है।
                             आकाशादि तन्मात्राओं के सात्विंश अंश की समष्टि से (अर्थात् पाँचों तन्मात्राओं के मिलन से ) बुद्धि, और मन नाम की दो अन्तःकरण वृत्तियों की उत्पत्ति होती है।बुद्धि निश्चयात्मिका वृत्ति है।और मन संकल्प विकल्पात्मिका । चित्त का बुद्धि, और अहंकार का मन में अन्तर्भाव है।ये सभी प्रकाश-स्वरुप है।अतः बाह्य संसार का ज्ञान स्थायी है, इसलिए इनको सत्वगुण से उत्पन्न माना जाता है। बुद्धि ओर ज्ञानेन्द्रियों को मिलाकर विज्ञानमय कोष बनता है। विज्ञानमय कोष से वशिच्छिन्न चैतन्य ही बीज है। वही वर्षा करता है, इन्हें भोगता है।सुख दुख का अभिमान कराता है, तथा कर्तव्यों की फल प्राप्ति के लिए इहलोक तथा परलोक में संचरण करता है।विज्ञानमय कोष बाह्य शक्ति से प्राप्त होते है, कारण कर्ता रुप है।                                                                                                                                                                                                            मन और ज्ञानेन्द्रियों के सम्मिलन को मनोमय कोष कहते है। यह इच्छाशक्ति से युक्त होता है।यह सत्यस्वरुप है,यह आकाशादि पण्च तन्मात्राओं के सात्विक अंश की सृष्टि है।
आकाशादि के सात्विक अंश से कर्मेन्द्रियों और प्राणों की उत्पत्ति होती है।कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति तन्मात्राओं से पृथक-्पृथक होती है।आकाश से वायु, वायु से हस्त, अग्नि से पाद, जल से वायु, तथा पृथ्वी से उपस्थ कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है।अग्नि क्रिया प्रधान है,अतः इन्हें कर्मेन्द्रिय कहा जाता है।प्राणों की उत्पत्ति पाँचों तन्मात्राओं के मिलन से होती है।प्राण्वायु पाँच है-प्राण, अपान, ध्यान, उदान, जनन्य।
                                      दशों इन्द्रियों , पण्च प्राणों, तथा मन बुद्धि इन सतरह अवयवों को मिलाकर मनुष्य का सुक्ष्म शरीर बनता है। स्थुल शरीर की उत्पत्ति आकाशादि पाँच स्थुल तत्वों से होती है।तन्मात्राओं से स्थुलभुतों की प्रक्रिया को पण्चीकरण कहते है।सुक्ष्मभुतों के प्रत्येक में दो भाग हो जाते है।एक-एक भाग वैसा ही रहता है पर दुसरे भाग के पुनः चार-चार भाग हो जाते है। अब इस प्रथम अर्थ भाग में शेष चारों भूतों का एक-एक भाग मिल जाता है।
                                      इन्ही पाँच स्थूल भूतों से भू भूवः स्वः महः जन तप तथा सत्यम्  इन सात ऊपर के लोकों की तथा तल चितल ,सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल नामक सात निम्न लोकों की तथा उनमें रहने वाले प्राणियों के स्थूल शरीरों एवं उनके भोजन आदि की उत्पत्ति होती है।स्थूल्शरीर चार प्रकार के होते है। जरायुज-गर्भाशय से उत्पन्न होने वाले मनुष्य , पशु आदि । अण्डज- अण्डे से उत्पन्न होने वाले पक्षी , सर्प, मत्स्य आदि। स्वेदज- स्वेद या गन्दगी से उत्पन्न होने वाले जुएँ, मच्छर तथा अन्य कीड़े ,और उद्विज्ज भूमि से उत्पन्न होने वाले वृक्ष आदि। अन्न से उत्पन्न होने वाले इस स्थूल शरीर को अन्नमय कोश कहते है।
                             इन स्थूल सुक्ष्म शरीरों की समाप्ति एक महान प्रपण्च का निर्माण करती है-महाप्रपण्च और उससे उपहित चैतन्य दोनों ही “सर्वं खल्विदं “ब्रह्म” इस महावाक्य में “इदम् सर्वं “ केवाच्य अर्थ है।किन्तु लक्षण से इसमें वर्तमान शुद्ध चैतन्य मात्र का बोध होता है।
                   इस प्रकार संसार का कारण साक्षात उपहित ब्रह्म या ईश्वर है। इस ईश्वर से दो अंश चैतन्य और अविद्या (उपाधि) परस्पर संवहित है। इसलिए शंकर वेदान्ती ईश्वर को ही सृष्टि का उपादान और निमित्त दोनों कारण मानते है। उपाधि का अविद्या अंश से वह जगत का उपादान कारण और चैतन्य अंश से निमित्त कारण है। शंकर के इस मन्तव्य का मील भी उपनिषदों में मिलता है।मुण्डकोपनिषद में आया है-
                             यथोर्जनाभिः सृजन्ते गृह्यते च,यथा पृथिव्यामोपचय सम्भवति।
                             यथा सत्तः पुरुषात् केशलोमानि, तथा जरात्सम्भवतीह विश्वम्।
अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी (जाले का) सृजन करती व उसे समेट लेती है, जिस प्रकार पृथ्वी से औषधियाँ वनस्पति वर्ग उत्पन्न होती है, और जिस प्रकार पुरुष के शरीर से बाल और रोम पैदा होते है, उसी प्रकार अजर (परमात्मा) से यह संसार उत्पन्न होता है।
                             जिस प्रकार सृष्टि का उसी प्रकार प्रलय का भी ईश्वर कारण है।जैसे मकड़ी का समेटा हुवा जाल शरीर सत होकर उसी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार ह दृष्य जगत सिमट कर उसकी उपाधि अविद्या में लीन हो जाती है। पश्चात अविद्या के असत्य होने के कारण वह भी नही रह जाती है, तब शुद्ध अनुपहित ब्रह्म अपने निर्विशेष रुप में शेष रह जाता है।


Wednesday, 28 May 2014

भाषा के प्रमुख स्तर


ये प्रमुख शाखाएँ या भाषा को प्रमुख व्यवस्था के आधार पर विभाग ‘वाक्य पदीय’ में भी किया है।इस तथ्य को ध्यान में रखकर भाषा के चार प्रमुख स्तर दिखाई पड़ते है।
१.वाक्य विज्ञान-भाषा की प्रमुख ईकाइ वाक्य ही है। (भाषा विचार विनिमय का साधन है,तथा एक पूर्ण विचार की अभिव्यक्ति वाक्य की पूर्ण ईकाइ में ही होती है।)वाक्य विज्ञान में वाक्य की रचना , वाक्य में प्रमुख रुप, तथा रुप समुहों के परस्पर संबंध की व्याख्या की जाती है।इसके लिए आसन्न घटक पद्धति का विशेष प्रचार है।इसके अंदर अर्थ की दृष्टि से निकटवर्ती पदों का या पद समुच्चयों का विश्लेषण किया जाता है।इसके अतिरिक्त वाक्य की रचना, उसके पदक्रम, अन्वय, क्रमिकता, रुपान्तर, वाक्य विन्यास में परिवर्तन तथा कारणादि बिंदुओं का विचार किया जाता है। यह विषय बहुत ही जटिल है। इसका संबंध मनुष्य के पारस्परिक तथा सामाजिक दोनों संदर्भ से है।
   २.रुप विज्ञान-वाक्य के घटक अवयवों को रुप कहते है।संस्कृत वाक्य एअचना में उनको पदसंज्ञा दी जाती है। अर्थात कोष में निर्दिष्ट शब्द कुछ अर्थवक्ता अवश्य लिए रहता है। परन्तु वाक्य में प्रयोग करते समय उसे कुछ परवर्ती किया जाता है। संस्कृत में उस कोषगत मूलरुपों को प्रातिपादिक कहते है।इसे प्रकृति का मुलरुप मानकर उनसे विभिन्न प्रत्यय को जोड़े जाते है, जो वाक्य में उनके विशिष्ट कार्य को या परस्पर संबंध को व्यक्त करते है।इस प्रकार संस्कृत के पदों में
अर्थ-तत्व तथा संबंध तत्व मिलकर पद निर्मित करते है।इस प्रकार वाक्य में प्रयुक्त पदों के संबंध
तत्व धातु, उपसर्ग, प्रत्यय पद रचना की प्रक्रिया व्याकरणिक पदों की रचना तथा प्रयोग , रुप वाक्य का वितरण आदि विश्लेषणादि विषयों का विवेचन किया जाता है।इस प्रकार हम कह सकते है कि जिनमें पदों का प्रयोग होता है, एसी भाषा के पदों के परस्पर संबंध का अध्ययन वाक्य विज्ञान के अन्तर्गत होता है। तथा पदों के निर्माण करने वाले तत्वों का आंरिक संबंधों का विश्लेषण पद विज्ञान के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार इस शाखा में पद की आन्तरिक रचना का विवेचन होता है।इससे उपसर्ग ,धातु, प्रत्यय, आदि तत्वों का अध्ययन होता है।जिन भाषाओं में पद प्रकृया (प्रकृति तथा प्रत्यय)न होकर भाषा स्थान या क्रम से ही पद या रुप निर्धारित होता हो ऐसी भाषा में वाक्य विचार तथा रुप विचार में सीमा रेखा खींचना कठिन होता है।
ध्वनि विज्ञान-भाषा का अंत्य घटक ध्वनि है। ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनि की उत्पत्ति ,ध्वनि से संबंधित उच्चारण अवयवों का अध्ययन तथा ध्वनि में परिवर्तन उसकी दिशाएँ तथा कारण आदि का अध्ययन होता है। इस अध्ययन में विभिन्न वैज्ञानिक उपकरणों की भी सहायता की जाती है। इसी के अन्तर्गत ध्वनियों के वितरण आदि को लेकर ध्वनि ग्राम की अवधारणा का भी विवेचन होता है।
अर्थ विज्ञान- भाषा का प्रयोजन मनुष्य समुदाय में परस्पर व्यवहार करना है,अर्थात ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था के माध्यम से हम अपनी इच्छा ,विचार, स्थिति, या घटना आदि की अभिव्यक्ति तथा संप्रेषण करते है। इस प्रकार हम अर्थ को व्यक्त करते है। आधुनिक भाषा विज्ञान वेत्ता अर्थ की अनिश्चितता तथा अरुपता के कारण इसका अध्ययन भाषा तंत्र के अन्तर्गत करना उचित नही समझते , इस अध्ययन को वे दर्शन का विषय मानते है।परन्तु अर्थ को भी अब वैज्ञानिक विश्लेषण पद्धतियों से परखा जाता है।(अर्थ विज्ञान में अर्थ की धारणा, इसमें परिवर्तन ,अर्थ संकोच तथा अर्थ विकासादि का अध्ययन किया जाता है।)
                   इन विधेयों के अतिरिक्त भाषा विज्ञान में गौण रुप से कुछ अन्य विषयों का भी अध्ययन होता है।भाषा की उत्पत्ति- भाषाओं का वर्गीकरण – इसमें वाक्य, रुप, शब्द, ध्वनि तथा अर्थ के आधार पर विश्व की भाषाओं का तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक पद्धति से अध्ययन किया जाता है।तथा उनका वर्गीकरण किया जाता है।
भाषिक भुगोल- किसी भाषा के क्षैत्र अर्थात उसके भौगोलिक विकास का अध्ययन । यथार्थतः बोली भूगोल विज्ञान नामक शाखा भी इसी का नाम है।
भाषा कालक्रम विज्ञान-सांख्यिकी के आधार किसी भी भाषा के आधारभुत शब्द समुहों में पुराने और नये तत्वों का अध्ययन करके उस भाषा की आयु का कालविशेष की अवस्था का पता लगाया जाता है।
भाषा पर आधारित प्रागेतिहासिक खोज –इसमें भाषा के आधार पर प्रागेतिहासिक काल की संस्कृति का अध्ययन किया जाता है।
लिपि विज्ञान- लिपि की उत्पत्ति ,विकास शक्ति तथा उपयोगिता का अध्ययन । प्रायोगिक पक्ष को ध्यान में रखकर ध्वनि विज्ञान की सहायता से टंकन तथा मुद्रणादि की सुविधाओं की दृष्टि से लिपि में सुधार पर भी विचार किया जाता है।
मनोभाषा विज्ञान- भाषा के मनोवैज्ञानिक पक्षों का अध्ययन
समाज भाषा विज्ञान-समाज और भाषा का संबंध । विभिन्न सामाजिक स्तर पर  भाषा का अध्ययन किया जाता है।
शैली विज्ञान- एक ही भाषा में बोलने वाले सभी व्यक्तियों की भाषा पूर्णत; समान नही होती ,यह बात साहित्य में तो पुर्ण रुप से दिखाई देती है। व्यक्तियों की इन भाषा रुपों के विशेषता का अध्ययन ही शैली विज्ञान कहलाता है।
सर्वेक्षण पद्धति-किसी क्षैत्र की बोली का विशेष पद्धति से विश्लेषण के लिए अध्ययन सर्वेक्षण पद्धति के अन्तर्गत आता है।

भू भाषा विज्ञान-इसके अन्तर्गत विश्व स्तर पर भाषाओं का वितरण इनका सामाजिक सांस्कृतिक महत्व इनका परस्पर संबंध राष्ट्रभाषा तथा राजभाषा आदि पर विचार किया जाता है।                    तुलनात्मक भाषा विज्ञान इस पद्धति से समकालीन भाषाओं का अध्ययन तो होता ही है, ऐतिहासिक अध्ययन में इसका विशेष योग है।इस पद्धति से एक ही परिवार की भाषाओं के अज्ञात स्वरुप का पता लगाने के लिए पुनः निर्माण की विधि का उपयोग किया जाता है।इस पद्धति से भारोपीय तथा इंडो हिडाइट जैसी प्राचीन भाषाओं का पुनः निर्माण हो जाता है।

Monday, 21 April 2014

भाषा विज्ञान की व्याख्या


ज्ञान दो प्रकार का होता है।१.सहज व नैसर्गिक २.बुद्धि ग्राह्य
१.नैसर्गिक ज्ञान पशुधारी में अधिक मात्रा में होता है।
२.बुद्धि ग्राह्य इसके अन्तर्गत भी विशिष्ट ज्ञान रहता है। भाषा के विशिष्ट ज्ञान को भाषा विज्ञान कहते है। १.तथ्यो का संकलन  २. वर्गीकरण ३. व्याख्या इसके आधार पर –विज्ञान –यह ज्ञान की विशिष्ट पद्धति होती है।
विशिष्ट ज्ञान- विज्ञान के नियम सार्वत्रिक तथा सार्वदेशिक होते है। जैसे-न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त। इस प्रकार विज्ञान में आधारभुत सिद्धान्त है –कारण कार्य की नित्यता ।
इसके विपरित जिसमे विकल्प के लिए अवकाश रहता है, ऐसे ज्ञान को कला जाता है। विज्ञान का उद्देश्य शुद्ध ज्ञान है,  जबकि कला का उद्देश्य मनोरंजन या उपयोगिता है।
ज्ञान को इस समय तीन भागों में विभाजित किया जाता है।१. प्राकृतिक विज्ञान- इसमें प्रकृति के तत्वों का विवेचन होता है।जैसे-गणित, रसायन,्भौतिक आदि।
२.सामाजिक विज्ञान-इसमें मनुष्यों के सामाजिक या समाज सापेक्ष विषयों का अध्ययन होता है।जैसे- समाजशास्त्र ,अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र ।
३.मानवविज्ञान-इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत सृजनात्मक ज्ञान का उल्लेख होता है।संगीत, साहित्य
                   भाषा विज्ञान वैज्ञानिक पद्धति के कारण प्राकृतिक विज्ञान के अन्तर्गत भी आ सकता है। जैसे- ध्वनि की प्रकृति उसका उत्पादन , ध्वनि को उत्पन्न करने वाले वाक् यंत्र की रचना , उसके ध्वनि लहर के रुप में विस्तार आदि विषय प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में आते है।भाषा समाज की ही उपज है,और समाज में ही परस्पर व्यवहार का साधन है।अतः यह सामाजिक तो है ही ,भाषा का सृजनात्मक पक्ष मानविकी के अन्तर्गत रखा जा सकता है।भाषा विज्ञान के नियम गणित की भांति सर्वथा देशकाल निरपेक्ष नियत नही है।और नही यह दर्शन की भांति केवल अनुभव पर आधारित है।कह सकते है कि भाषा विज्ञान में गणित तथा अनुभव दोनों का ही योग है।इस दिशा में अब भाषा की रचना उसके विभिन्न स्तर , ध्वनि , ध्वनिग्राम, रुप, वाक्य रचनादि के प्रयोग तथा वितरण या (आकृति) वैज्ञानिक पद्धति से पूर्ण विवेचन किया जाता है।यह अध्ययन गणितीय सूत्रों के आधार पर ही किया जाता है।इसमें विभिन्न प्रकार के यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।इस प्रकार भाषा के सांगोपांग , व्यवस्थित ,विशिष्ट वैज्ञानिक अध्ययन के क्षैत्र में जो उपलब्धियाँ आधुनिक भाषा विज्ञान वेत्ताओं ने अर्जित की है, उसे देखते हुए भाषाविज्ञान की वैज्ञानिकता में संदेह नही है।
भाषा विज्ञान- जिस विज्ञान के अन्तर्गत समकालिक ,एतिहासिक, तुलनात्मक और प्रायोगिक अध्ययन के सहारे भाषा ही नही अपितु सामान्य की उत्पति गहन प्रकृति एवं विकास आदि की सम्यक व्याख्या करते हुए इन सभी के विषय में सिद्धान्तों का निर्धारण हो, उसे भाषाविज्ञान कहते है।
                   इस अध्ययन में विभिन्न वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग हो सकता है\जिसमें कालखण्ड विशेष के भाषा रुप को लेकर अध्ययन किया जाता है, उसे समकालिक, सांगकालिक अध्ययन कहते है।इसके अंदर दो पद्धतियाँ अपनाई जाती है।
१,वर्णनात्मक-इसमें उस भाषा के गठन का विश्लेषण किया जाता है।
२.संरचनात्मक-इसमें भाषा के गठन के विश्लेषण के साथ-्साथ उसके विभिन्न अवयवों अंतःसंबन्धों का संरचनात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है।
ऐतिहासिक – इसमें भाषा के विकास के भिन्न-भिन्न रुपों का या अवस्था का अध्ययन किया जाता है।जैसे-वैदिक से भौतिक संस्कृत , पाली,प्राकृत,अपभ्रंश तथा वर्तमान भाषाएँ। इस पूरे क्रमिक नियमों का अध्ययनेतिहासिक दृष्टि से किया जाता है।इसको हम मात्रात्मक कह सकते है, कालक्रमिक कह सकते है।
तुलनात्मक पद्धति-इसके अन्तर्गत दो या दो से अधिक भाषाओं या उनकी गठन के भेद व साम्य की दृष्टि से अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन एक ही भाषा के विभिन्न काल के रुपों का भी हो सकता है। इससे प्रतीत होता है कि एतिहासिक अध्ययन प्रायः तुलनात्मक होता ही है। वास्तव में आधुनिक भाषा का अध्ययन तुलनात्मक अध्ययन का ही परिणाम है। संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, आदि के तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरुप ही भाषा विज्ञान का जन्म हुवा। इसका प्राचीन नाम है-तुलनात्मक व्याकरण या भाषा विज्ञान । तुलनात्मक अध्ययन समकालिक तथा एतिहासिक दोनों ही हो सकता है।
प्रायोगिक भाषा विज्ञान- इसके अन्तर्गत भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन के फलस्वरुप प्राप्त सिद्धान्तों का भाषा के व्यवहारिक उपयोग के क्षैत्र में उपयोग किया जाता है।
जैसे- भाषा की लिखने, सिखाने की विधि , अनुवाद, कार्य, अनुवाद संबंधी मशीन, टाइप तथा मुद्रणें कम्प्युटर में सुधार,्हकलाना, तुतलाना आदि उच्चारण दोषों को दुर करना।
                   भाषा एक संघटना और संघटना के भिन्न भिन्न स्तर होते है। उन विभिन्न स्तर की इकाईयाँ भी भिन्न होती है। वैज्ञानिक अध्ययन में इन इकाईयों की क्रियाशीलता उनका परस्पर संबंध तथा विभिन्न स्तरों में अंतःसंबंध आदि का विश्लेषण किया जाता है। वास्तव में भाषा एक अखण्ड वाक् प्रवाह है। पारमार्थिक दृष्टि से उसमें भेद नही है। परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से विश्लेषण की सुविधा से विभिन्न स्तर भेदों की कल्पना की जाती है। इस तथ्य की पुष्टि भतृहरि ने अपने

‘पदेक वर्णा न विद्यन्ते वाक्यात् पदानां सामयिक विभागः’ वाक्य में की है।

Saturday, 5 April 2014

भाषा के अंग


वर्ण-नाद की लघुतम , अविभाज्य ,व्यवहारार्थ (व्यवहार योग्य) इकाई वर्ण है।
संकेत- सरलता सुक्ष्मता ,स्पष्टता जिनका स्वर की सहायता से ही उच्चारण हो,वह व्यंजन
          स्वयं राजन्ते इति स्वराः ।
संकेत का अर्थ अपेक्षाकृत व्यापक है, प्रायः संकेत तथा संकेतिक में निश्चित संबंध होता है।
जैसे- बच्चे का चित्रवाला वह मोटर चालक को पाठशाला के होने की सुचना देता है । उसे समझने के लिए भाषा विशेष का बोध होना आवश्यक नही है।
प्रतीक- समुदाय विशेष में उसकी इच्छा के अनुभव प्रयुक्त होते है।वे किसी पुर्ण अर्थ को अंश के माध्यम से व्यक्त करते । इनमें प्रतीक तथा प्रतित्य में निश्चित संबंध नही हुवा। जैसे- ‘गाय’ इस शब्द का उच्चारण करने पर केवल उस भाषा समुदाय के लिए ही विशिष्ट प्राणी का अर्थ बोध होता है।
व्यवस्था-ऐसी सुनिश्चित योजनानुसार घटक ईकाइयों और अवयवों के क्रम, संख्या ,प्रकार आदि का निर्धारण हो, उसे व्यवस्था कहते है।
प्रत्येक भाषा में अनन्त ध्वनियों मे से जो कुछ निश्चित ध्वनियों का ही प्रयोग होता है, उन ध्वनियों का क्रम भी निश्चित होता है, उन ध्वनियों के संयोगादि का भी प्रकार निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त पद, पदसमुच्चय , तथा वाक्य रचनादि में भी क्रमबद्धता होती है। यह व्यवस्था समाज के द्वारा निश्चित होती है। व्यवस्था के अन्तर्गत उपव्यवस्थाएँ भे होती है। उस समाज के सभी सदस्य उस निश्चित व्यवस्था से परिचित होते है। तथा उसी के अनुरुप भाषा का व्यवहार करते है। इस प्रकार निश्चित समाज स्वीकार मर्यादा के अन्तर्गत क्रम बद्धता का पुर्व ज्ञान ही भाषा की व्यवस्था का परिचायक है। पूर्व ज्ञान होने के कारण ही भाषा का प्रायोग संभव होता है। तथा इसी के कारण भाषा में सम्प्रेषण अर्थात अर्थ का आदान-्प्रदान सम्भव होता है।

किसी भाषा के शब्द समुह का ही ज्ञान उस भाषा के व्यवहार या प्रयोग के लिए पर्याप्त नही होता ,अर्थात वस्तु या प्राणी आदि के बोधक पदों या शब्दों को जान लेने पर ही उनके विषय में वाण्छित बात नही की जा सकती, जब तक की हमें उस भाषा की व्यवस्था का बोध न हो। इस व्यवस्था को ही संरचना या संघटना कहते है।यह व्यवस्था न केवल वाचिक प्रतीकों की व्यवस्था तक सीमित है, अपितु अपनी सामाजिक अव्यवस्था के अनुरुप अर्थ के स्तर पर भी निश्चित क्रम तथा व्यवस्था होती है। इस तरह हमें अर्थ को भी अपने अभीष्ट कथन के रुप में स्थरीकृत तथा व्यवस्थित करना होता है। इस व्यवस्था का पूर्ण ज्ञान ही हमें उस भाषा के व्यवहार के लिए समर्थ बनाता है। 

Tuesday, 18 March 2014

भाषा का रुप परिवर्तन



भाषा चिरपरिवर्तनशील है। भाषा में परिवर्तन या विकास उसके पाँचों ही रुपों –ध्वनि ,शब्द, रुप, अर्थ और वाक्य में होता है। भाषा में परिवर्तन दो प्रमुख भागों में विभाजित है।
१.आभ्यन्तर  २. बाह्य                                                    
                   आभ्यन्तर वर्ग में भाषा की अपनी स्वाभाविक गति तथा वे कारण सम्मिलित है जो प्रयोज्या की शारीरिक तथा मानसिक योग्यता आदि सम्बन्धित स्थिति से सम्बन्ध रखते है । बाह्य वर्ग में वे कारण आते है , जो बाहर से भाषा को प्रभावित करते है।
१.आभ्यन्तर वर्ग- (क) प्रयोग से घिस जाना- अधिक प्रयोग के कारण धीरे-धीरे सभी चीजों की भाँति भाषा में भी स्वाभाविक रुप से परिवर्तन होता है। संस्कृत की कारकीय विभक्तियाँ इसी प्रकार धीरे धीरे घिसते घिसते समाप्त हो गई।
(ख) बल- जिस ध्वनि या अर्थ पर अधिक बल दिया जाता है, वह अन्य ध्वनियों या अर्थो को या तो कमजोर बना देते है या समाप्त कर देते है। इस प्रकार इनके कारण भी भाषा में परिवर्तन हो जाता है।
(ग) प्रयत्न लाघव- व्यक्ति कम से कम प्रयास से अधिक से अधिक काम करना चाहता है, इसी प्रयत्न लाघव के प्रयास से ही शब्दों को सरल बनाने या सरलता के लिए कभी तो बड़ा और कभी छोटा बना डालते है। कृष्ण का कन्हैया , कान्हा का किशन , गोपेन्द्र का गोबिन , स्टेशन का टेशन, प्लेटो से अफलातुन । प्रयत्नलाघव कई प्रकार से लाया जाता है,  स्वर लोप- अनाज से नाज, एकादश से ग्यारह, २.व्यंजन लोप- स्थाली से थाली, ३. अक्षर लोप- शहतुत से तुत ४. स्वरागम- स्काउट से इस्काउट, कर्म से करम , कृपा से किरिपा ५. व्यंजनागम- अस्थि से हड्डी ६. विपर्यय- वाराणसी से बनारस ७समीकरण- शर्करा से शक्कर, ७. विषमीकरण- काक से काग, ८. स्वतः अनुनासिक – श्वास से साँस, तथा कुछ अन्य जैसे- गृह से घर, वधु से बहु आदि।
(घ)मानसिक स्तर-्बोलने वालों के मानसिक स्तर में परिवर्तन होने से विचारों में परिवर्तन होता है। विचारों में परिवर्तन होने से अभिव्यंजना के रुप में परिवर्तन होता है। और इस प्रकार भाषा पर भी प्रभाव पड़ता है।
(ण)अनुकरण की अपूर्णता-अनुकरण प्रायः अपूर्ण होता है, होता यह है कि अनुकरण में अनुकर्ता कुछ भाषिक तथ्यों को छोड़ देता है, तथा कुछ को अपनी ओर से अनजाने ही जोड़ देता है। इस तरह अनुकरण में भाषा का परिवर्तन पनपता है।
अनुकरण की अपुर्णता के लिए भी कई कारण है-(१)शारीरिक विभिन्नता-ध्वनियों का उच्चारण अंगों के सहारे करते है। और सब उच्चारण अंग एक से नही होते, अतएव उनका अनुकरण पूर्ण नही हो पाता।

Friday, 7 March 2014

स्वर-प्रक्रिया


         
                             उदात्त और अनुदात्त शुद्ध और स्वतंत्र स्वर है। इन्हीं दोनों के मेल से स्वरित की उत्पत्ति होती है। इन सबके चिन्हों के आधार पर लक्षण निम्नलिखित प्रकार के है-
उदात्तः- अपूर्वो अनुदात्तपूर्वो वा अतद्धितः उदात्तः।
जिससे पूर्व कोई स्वर न हो, अथवा अनुदात्त पूर्व में हो, (स्वरित उत्तर में हो) एसा चिन्ह रहित अक्षर उदात्त होता है। --
अनुदात्त- अणोरेखयाअनुदात्तः ।   अक्षर के नीचे पड़ी रेखा से अनुदात्त स्वर का निर्देश किया जाता है।
स्वरित- उर्ध्व रेखया स्वरितः । अक्षर के ऊपर खड़ी रेखा से स्वरित का निर्देश किया जाता है।
उदात्तानुदात्तस्य  स्वरितः ।  प्रचय- स्वरितात् परो अतद्धित  एकयुति।
स्वरित से परे जिस या जिन अक्षरो पर कोई चिन्ह न हो , उन्हें एकयुति अथवा प्रचय कहते है।
स्वर शास्त्र में अक्षर शुद्ध स्वर वर्ण अथवा व्यंजन सहित स्वर का वाचन होता है। यद्यपि स्वर शास्त्र के अनुसार उदात्त आदि स्वर धर्म स्वर वर्णो के ही है। तथापि स्वर निर्देश प्रकरण में चिन्हों के ठीक ज्ञान के लिए व्यंजन विशिष्ट स्वरों का उल्लेख किया जाता है। उनके निर्देश से अभिप्राय तत्तत् अर्थो से ही है, व्यंजनों से नही । अष्टाध्यायी के अतिरिक्त अन्य प्राचीन स्वर शास्त्रों में स्वरित के अनेक भेद निहित है, वैदिक ग्रंथों में उनमे से कतिपय विशिष्ट स्वरितों में अंकन के लिए विभिन्न चिन्हों की व्यवस्था उपलब्ध होती है। यदि उदात्त के पश्चात के अनुदात्त के पश्चात पुनः उदात्त आवे तो वह अनुदात्त ही रहता है। प्रातिशाख्य आदि ग्रन्थों में नव प्रकार के स्वरितों का उल्लेख मिलता है। इनमें से मुख्यतया पाँच महत्वपूर्ण है।
१-संहितज अथवा सामान्य स्वरित- एक पद में अथवा अनेक पदों की संहिता में उदात्त से परे अनुदात्त को जो स्वरित होता है, उसे सामान्य स्वरित कहते है,
२. – जात्या- जो स्वरित अपनी जाति (जात्य, स्वभाव) से स्वरित होता है, अर्थात जो किसी उदात्त वर्ण के संयोग से अनुदात्त स्वरित भाव को प्राप्त नही होता , उसे जात्य स्वरित कहते है। तैत्तरीय प्रातिशाख्य में इसे नित्य स्वरित कहा है,  यह स्वरित पदपाठ में भी स्वरित ही बना रहता है । अभिनिहित, क्षैप्र , तथा प्रश्लिष्ट संधियों के फलस्वरुप उत्पन्न होने वाले स्वरित तत् तत् संधियों के नाम पर अभिनिहित, क्षैप्र तथा प्रश्लिष्ट स्वरित कहलाते है।
३. अभिनिहित- एकार तथा ओकार से परे जहाँ ह्रस्व अकार का बोध अथवा पूर्वरुप होता है, उस संधि को प्रातिशाख्यों में अभिनिहित संधि कहते है। इस संधि के कारण उदात्त एकार अथवा उदात्त ओकार ( चाहे वह स्वतंत्र रुप से हो अथवा संधि से बना हो) से परे अनुदात्त अकार का बोध अथवा पूर्व रुप ह्प्ने पर जो स्वरित होता है, उसे अभिनिहित संधि के कारण अभिनिहित स्वरित कहते है।
४. क्षैप्र- इ उ ऋ लृ के स्थान में अच् परे रहने पर जो य् र् व् ल् (यण्) आदेश रुप संधि होती है, उसे प्रातिशाख्यों में क्षैप्र संधि कहते है। इसी क्षैप्र संधि के अनुसार यहाँ उदात्त इकार उकार के स्थान में यण् आदेश होने पर उनमें अनुदात्त स्वर को स्वरित हो जाता है, उसे क्षैप्र स्वरित कहते
५.प्रश्लिष्ट- दो अर्थो के मिलने से जो संधि होती है, उसे प्रश्लिष्ट संधि कहते है। और इअस कारण होने वाला स्वरित प्रश्लिष्ट स्वरित कहलाता है।  वैसे प्रातिशाख्यों के अनुसार प्रश्लिष्ट संधि पाँच प्रकार की होती है, परन्तु स्वरित मेम केवल दो प्रकारों की (उदात्तह्रस्व+ अनुदात्तह्रस्व)्दीर्घ रुप संधि में देखा जाता है।
विशेषवक्तव्य- उदात्त और अनुदात्त स्वरों की प्रश्लिष्ट संधि दो प्रकार की होती है। एक वह जिसमें पूर्ववर्ण अनुदात्त हो, और उत्तरवर्ण उदात्त । एसी सभी प्रश्लिष्ट संधियों में दोनों स्वरों के स्थान में उदात्तरुप एकादेश होता है। दुसरी प्रश्लिष्ट संधि वह है जिसमें पूर्ववर्ण उदात्त हो और उत्तर वर्ण अनुदात्त । इन दोनों स्वरों के स्थान पर जो एकादेश होता है , वह शाखा भेद से भी उदात्त और कहीं स्वरित देखा जाता है , ऋग्वेद की शाकल शाखा में यह स्वरित ही होता है और इसे प्रश्लिष्ट स्वरित कहते है।

Thursday, 27 February 2014

स्वर-प्रक्रिया



अन्धकारे दीपिकाभिर्गच्छन् स्खलन्ति क्वचित्
एवं स्वरै प्रतीचानां भक्त्यर्थम् स्फुटन्ति।
                   जिस प्रकार अन्धकार में दीपिका की सहायता से चलता हुवा व्यक्ति कही ठोकर खाता, उसी प्रकार स्वरों की सहायता से किए गए अर्थ स्फुट (सन्देह रहित) होते है।
उदात्तादि स्वरों की सत्ता वैदिक भाषा की विशेषता है। वेद के वास्तविक अभिप्राय तक पहुँचने के जितने साधन है, उनमें स्वर-शास्त्र सबसे प्रधान है। व्याकरण और निरुक्त जैसे प्रमुख शास्त्र भी स्वर-शास्त्र के अंग बनकर ही वेदार्थ ज्ञान में सहायक होते है। स्वर शास्त्र का विरोध होने पर ये दोनों शास्त्र पंगु बने रहते है। स्वर ज्ञान के बिना न केवल मंत्र का वास्तविक अभिप्राय ही अज्ञात रहता है, अपितु स्वर शास्त्र की उपेक्षा से अनेक स्थानों में अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। इसलिए वेद के सूक्ष्मांतक अभिप्राय तक पहुँचने के लिए उदात्त आदि स्वरों का ज्ञान नितांत आवश्यक है।
                   स्वर शब्द लौकिक और वैदिक वाड़्मय में भिन्न अर्थो में प्रयुक्त होता है। वाक् वर्ण विशेष अत्+ऋणादि संगीत शास्त्र के स्वर यण , प्राण, सूर्य , प्रणव, उदात्तादि ध्वनि विशेष प्रस्तुत संदर्भ में स्वर शब्द से वैदिक वाड़्मय में प्रसिद्ध उदात्त, अनुदात्त , स्वरित संज्ञक उच्चारण विषयक वर्ण वर्गो का ग्रहण होता है।
                   वैदिक वाड़्मय में उदात्त आदि स्वरों के अनेक भेद उल्लिखित है, कहीं सात, कहीं पाँच , कहीं चार, कहीं तीन ,कहीं दो और कहीं एक ही स्वर का उल्लेख मिलता है। महाभाष्य में सात स्वर गिनाये गए है। नाटक शिक्षा में ५स्वर ।
                   उदात्ताश्चानुदात्तश्चस्वरितप्रचितोतथा
                   निपातश्चेति विधेय स्वरभेदस्तु पंचमः।
साधारणतया निपात शब्द अनुदात्त अर्थ में प्रसिद्ध है,  शाकव, माध्यन्दित , कण्व, कौथुम, आदि संहिताओं में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों का ही उच्चारण होता है। प्रचय स्वर का भी उल्लेख है।
                             स्वर शास्त्र के अनुसार उदात्त आदि समस्त स्वर उच्चारण वर्ण स्वर अर्थात् अच् संज्ञक वर्णो के धर्म है, व्यंजनों के नही। अच् ही ऐसे वर्ण हैजिनका उच्चारण बिना अन्य वर्ण की सहायता के होता है, स्वयं सजन्त इति स्वराः। महाभाष्य  ।१।२।३०
                             उदात्त अनुदात्त और स्वरित स्वरों के लक्षण और उनके उच्चारण की विधि का उल्लेख अनेक ग्रंथों में मिलता है। पाणिनीय मत-
                                      उच्चैः उदात्तः , नीचैः अनुदात्तः, समाहारः स्वरितः ।
जिस स्वर के उच्चारण में आयाम हो, उसे उदात्त कहते है,  आयाम का अर्थ है, मात्रों का स्वर की तरफ खींचा जाना ।जिस स्वर के उच्चारण में विलंब हो, उसे अनुदात्त कहते है। मात्रों की शिथिलता या उनका अधोगमन विश्राम कहलाता है । जिस स्वर के उच्चारण में आक्षेप हो, उसे स्वरित कहते है, आक्षेप का अर्थ है- मात्रों का निचैरगमन।  इस प्रकार के निर्देशन के आधार पर ही शुद्ध उच्चारण कर पाना कठिन ही है। इन स्वरों का सुक्ष्म उच्चारण प्रकार चिरकाल से लुप्तप्राय है, महाराष्ट्र में कुछ बृहद् ऋग्वेदीय ब्राह्मण स्वरों के सूक्ष्म उच्चारण में कदाचित् समर्थ होते, परन्तु अधिकतर श्रोत्रिय हस्त आदि अंगचालन के द्वारा ही उदात्त आदि स्वरों का द्योतन करते है।