सृष्टि एक लीला है और इस लीला का आदि एवं अवसान बिन्दु
ब्रह्म ही है। तैत्तिरीयोपनिषद –
‘यतो
वा इमानि वृत्तानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयत्यमिसविश्यन्ति तद्विविज्ञातत्व
तत् ब्रह्मेदी’ । अर्थात् यह संसार जिससे पैदा होता है, पैदा होकर पलता एवं पल्लवित
होता है। तथा नाश होने पर जहाँ विलीन होता है, उसे जानो वह ब्रह्म ही है।सृष्टि के
विषय में यही वेदान्त का निर्णय है।
शंकर
कहते है कि इसका कोई प्रयोजन नही, ईश्वर केवल लीला के लिए ही सृष्टि करता है। वह इसका
स्वभाव ही है।जैसे मनुष्य के शरीर में श्वास प्रश्वास चलते रहते है।उसी प्रकार सृष्टि
की उत्पत्ति और विनाश होते रहते है।
तमोगुण प्रधान विशेष व्यक्ति से युक्त ब्रह्म ही
सृष्टि का कारण है।उससे सर्वप्रथम सूक्ष्मतम आकाश की उत्पत्ति होती है।क्रमशः आकाश
से सूक्ष्मतर वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से
जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। सृष्टि में जड़ता का प्राधान्य है।अतः उसके
कारण ईश्वर को भी तमोगुण से युक्त विक्षेपशक्ति से ध्वनित माना जाता है।ये तीनों तत्व
अत्यन्त सुक्ष्म हौते है।और व्यक्त नही होते , अतः इन्है सुक्ष्मभूत या तन्मात्रा कहा
जाता है। इन तन्मात्राओं में अपने कारण से तीनों गुण आ जाते है।
इन
तन्मात्राओं के सात्विक अंश से पृथक पृथक पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है।आकाश
तन्मात्रा से नेत्र, वायु तन्मात्रा से स्पर्श , अग्नि तन्मात्रा से चक्षु, जल तन्मात्रा
से जिव्हा, पृथ्वी तन्मात्रा से प्राण इन्द्रिय की उत्पत्ति होती है। इन पाँचों का
निवास स्थान क्रमशः वर्ण त्वचा , नेत्र, जिव्हा तथा नासिका में है। और ये क्रमशः शब्द,
स्पर्श, रुप, रस गन्ध का अनुभव कराती है।
आकाशादि
तन्मात्राओं के सात्विंश अंश की समष्टि से (अर्थात् पाँचों तन्मात्राओं के मिलन से
) बुद्धि, और मन नाम की दो अन्तःकरण वृत्तियों की उत्पत्ति होती है।बुद्धि निश्चयात्मिका
वृत्ति है।और मन संकल्प विकल्पात्मिका । चित्त का बुद्धि, और अहंकार का मन में अन्तर्भाव
है।ये सभी प्रकाश-स्वरुप है।अतः बाह्य संसार का ज्ञान स्थायी है, इसलिए इनको सत्वगुण
से उत्पन्न माना जाता है। बुद्धि ओर ज्ञानेन्द्रियों को मिलाकर विज्ञानमय कोष बनता
है। विज्ञानमय कोष से वशिच्छिन्न चैतन्य ही बीज है। वही वर्षा करता है, इन्हें भोगता
है।सुख दुख का अभिमान कराता है, तथा कर्तव्यों की फल प्राप्ति के लिए इहलोक तथा परलोक
में संचरण करता है।विज्ञानमय कोष बाह्य शक्ति से प्राप्त होते है, कारण कर्ता रुप है। मन
और ज्ञानेन्द्रियों के सम्मिलन को मनोमय कोष कहते है। यह इच्छाशक्ति से युक्त होता
है।यह सत्यस्वरुप है,यह आकाशादि पण्च तन्मात्राओं के सात्विक अंश की सृष्टि है।
आकाशादि के सात्विक अंश से कर्मेन्द्रियों और प्राणों
की उत्पत्ति होती है।कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति तन्मात्राओं से पृथक-्पृथक होती है।आकाश
से वायु, वायु से हस्त, अग्नि से पाद, जल से वायु, तथा पृथ्वी से उपस्थ कर्मेन्द्रियों
की उत्पत्ति होती है।अग्नि क्रिया प्रधान है,अतः इन्हें कर्मेन्द्रिय कहा जाता है।प्राणों
की उत्पत्ति पाँचों तन्मात्राओं के मिलन से होती है।प्राण्वायु पाँच है-प्राण, अपान,
ध्यान, उदान, जनन्य।
दशों
इन्द्रियों , पण्च प्राणों, तथा मन बुद्धि इन सतरह अवयवों को मिलाकर मनुष्य का सुक्ष्म
शरीर बनता है। स्थुल शरीर की उत्पत्ति आकाशादि पाँच स्थुल तत्वों से होती है।तन्मात्राओं
से स्थुलभुतों की प्रक्रिया को पण्चीकरण कहते है।सुक्ष्मभुतों के प्रत्येक में दो भाग
हो जाते है।एक-एक भाग वैसा ही रहता है पर दुसरे भाग के पुनः चार-चार भाग हो जाते है।
अब इस प्रथम अर्थ भाग में शेष चारों भूतों का एक-एक भाग मिल जाता है।
इन्ही
पाँच स्थूल भूतों से भू भूवः स्वः महः जन तप तथा सत्यम् इन सात ऊपर के लोकों की तथा तल चितल ,सुतल, रसातल,
तलातल, महातल और पाताल नामक सात निम्न लोकों की तथा उनमें रहने वाले प्राणियों के स्थूल
शरीरों एवं उनके भोजन आदि की उत्पत्ति होती है।स्थूल्शरीर चार प्रकार के होते है। जरायुज-गर्भाशय
से उत्पन्न होने वाले मनुष्य , पशु आदि । अण्डज- अण्डे से उत्पन्न होने वाले पक्षी
, सर्प, मत्स्य आदि। स्वेदज- स्वेद या गन्दगी से उत्पन्न होने वाले जुएँ, मच्छर तथा
अन्य कीड़े ,और उद्विज्ज भूमि से उत्पन्न होने वाले वृक्ष आदि। अन्न से उत्पन्न होने
वाले इस स्थूल शरीर को अन्नमय कोश कहते है।
इन
स्थूल सुक्ष्म शरीरों की समाप्ति एक महान प्रपण्च का निर्माण करती है-महाप्रपण्च और
उससे उपहित चैतन्य दोनों ही “सर्वं खल्विदं “ब्रह्म” इस महावाक्य में “इदम् सर्वं
“ केवाच्य अर्थ है।किन्तु लक्षण से इसमें वर्तमान शुद्ध चैतन्य मात्र का बोध होता है।
इस
प्रकार संसार का कारण साक्षात उपहित ब्रह्म या ईश्वर है। इस ईश्वर से दो अंश चैतन्य
और अविद्या (उपाधि) परस्पर संवहित है। इसलिए शंकर वेदान्ती ईश्वर को ही सृष्टि का उपादान
और निमित्त दोनों कारण मानते है। उपाधि का अविद्या अंश से वह जगत का उपादान कारण और
चैतन्य अंश से निमित्त कारण है। शंकर के इस मन्तव्य का मील भी उपनिषदों में मिलता है।मुण्डकोपनिषद
में आया है-
यथोर्जनाभिः
सृजन्ते गृह्यते च,यथा पृथिव्यामोपचय सम्भवति।
यथा
सत्तः पुरुषात् केशलोमानि, तथा जरात्सम्भवतीह विश्वम्।
अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी (जाले का) सृजन करती व
उसे समेट लेती है, जिस प्रकार पृथ्वी से औषधियाँ वनस्पति वर्ग उत्पन्न होती है, और
जिस प्रकार पुरुष के शरीर से बाल और रोम पैदा होते है, उसी प्रकार अजर (परमात्मा) से
यह संसार उत्पन्न होता है।
जिस
प्रकार सृष्टि का उसी प्रकार प्रलय का भी ईश्वर कारण है।जैसे मकड़ी का समेटा हुवा जाल
शरीर सत होकर उसी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार ह दृष्य जगत सिमट कर उसकी उपाधि
अविद्या में लीन हो जाती है। पश्चात अविद्या के असत्य होने के कारण वह भी नही रह जाती
है, तब शुद्ध अनुपहित ब्रह्म अपने निर्विशेष रुप में शेष रह जाता है।