Monday, 21 April 2014

भाषा विज्ञान की व्याख्या


ज्ञान दो प्रकार का होता है।१.सहज व नैसर्गिक २.बुद्धि ग्राह्य
१.नैसर्गिक ज्ञान पशुधारी में अधिक मात्रा में होता है।
२.बुद्धि ग्राह्य इसके अन्तर्गत भी विशिष्ट ज्ञान रहता है। भाषा के विशिष्ट ज्ञान को भाषा विज्ञान कहते है। १.तथ्यो का संकलन  २. वर्गीकरण ३. व्याख्या इसके आधार पर –विज्ञान –यह ज्ञान की विशिष्ट पद्धति होती है।
विशिष्ट ज्ञान- विज्ञान के नियम सार्वत्रिक तथा सार्वदेशिक होते है। जैसे-न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त। इस प्रकार विज्ञान में आधारभुत सिद्धान्त है –कारण कार्य की नित्यता ।
इसके विपरित जिसमे विकल्प के लिए अवकाश रहता है, ऐसे ज्ञान को कला जाता है। विज्ञान का उद्देश्य शुद्ध ज्ञान है,  जबकि कला का उद्देश्य मनोरंजन या उपयोगिता है।
ज्ञान को इस समय तीन भागों में विभाजित किया जाता है।१. प्राकृतिक विज्ञान- इसमें प्रकृति के तत्वों का विवेचन होता है।जैसे-गणित, रसायन,्भौतिक आदि।
२.सामाजिक विज्ञान-इसमें मनुष्यों के सामाजिक या समाज सापेक्ष विषयों का अध्ययन होता है।जैसे- समाजशास्त्र ,अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र ।
३.मानवविज्ञान-इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत सृजनात्मक ज्ञान का उल्लेख होता है।संगीत, साहित्य
                   भाषा विज्ञान वैज्ञानिक पद्धति के कारण प्राकृतिक विज्ञान के अन्तर्गत भी आ सकता है। जैसे- ध्वनि की प्रकृति उसका उत्पादन , ध्वनि को उत्पन्न करने वाले वाक् यंत्र की रचना , उसके ध्वनि लहर के रुप में विस्तार आदि विषय प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में आते है।भाषा समाज की ही उपज है,और समाज में ही परस्पर व्यवहार का साधन है।अतः यह सामाजिक तो है ही ,भाषा का सृजनात्मक पक्ष मानविकी के अन्तर्गत रखा जा सकता है।भाषा विज्ञान के नियम गणित की भांति सर्वथा देशकाल निरपेक्ष नियत नही है।और नही यह दर्शन की भांति केवल अनुभव पर आधारित है।कह सकते है कि भाषा विज्ञान में गणित तथा अनुभव दोनों का ही योग है।इस दिशा में अब भाषा की रचना उसके विभिन्न स्तर , ध्वनि , ध्वनिग्राम, रुप, वाक्य रचनादि के प्रयोग तथा वितरण या (आकृति) वैज्ञानिक पद्धति से पूर्ण विवेचन किया जाता है।यह अध्ययन गणितीय सूत्रों के आधार पर ही किया जाता है।इसमें विभिन्न प्रकार के यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।इस प्रकार भाषा के सांगोपांग , व्यवस्थित ,विशिष्ट वैज्ञानिक अध्ययन के क्षैत्र में जो उपलब्धियाँ आधुनिक भाषा विज्ञान वेत्ताओं ने अर्जित की है, उसे देखते हुए भाषाविज्ञान की वैज्ञानिकता में संदेह नही है।
भाषा विज्ञान- जिस विज्ञान के अन्तर्गत समकालिक ,एतिहासिक, तुलनात्मक और प्रायोगिक अध्ययन के सहारे भाषा ही नही अपितु सामान्य की उत्पति गहन प्रकृति एवं विकास आदि की सम्यक व्याख्या करते हुए इन सभी के विषय में सिद्धान्तों का निर्धारण हो, उसे भाषाविज्ञान कहते है।
                   इस अध्ययन में विभिन्न वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग हो सकता है\जिसमें कालखण्ड विशेष के भाषा रुप को लेकर अध्ययन किया जाता है, उसे समकालिक, सांगकालिक अध्ययन कहते है।इसके अंदर दो पद्धतियाँ अपनाई जाती है।
१,वर्णनात्मक-इसमें उस भाषा के गठन का विश्लेषण किया जाता है।
२.संरचनात्मक-इसमें भाषा के गठन के विश्लेषण के साथ-्साथ उसके विभिन्न अवयवों अंतःसंबन्धों का संरचनात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है।
ऐतिहासिक – इसमें भाषा के विकास के भिन्न-भिन्न रुपों का या अवस्था का अध्ययन किया जाता है।जैसे-वैदिक से भौतिक संस्कृत , पाली,प्राकृत,अपभ्रंश तथा वर्तमान भाषाएँ। इस पूरे क्रमिक नियमों का अध्ययनेतिहासिक दृष्टि से किया जाता है।इसको हम मात्रात्मक कह सकते है, कालक्रमिक कह सकते है।
तुलनात्मक पद्धति-इसके अन्तर्गत दो या दो से अधिक भाषाओं या उनकी गठन के भेद व साम्य की दृष्टि से अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन एक ही भाषा के विभिन्न काल के रुपों का भी हो सकता है। इससे प्रतीत होता है कि एतिहासिक अध्ययन प्रायः तुलनात्मक होता ही है। वास्तव में आधुनिक भाषा का अध्ययन तुलनात्मक अध्ययन का ही परिणाम है। संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, आदि के तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरुप ही भाषा विज्ञान का जन्म हुवा। इसका प्राचीन नाम है-तुलनात्मक व्याकरण या भाषा विज्ञान । तुलनात्मक अध्ययन समकालिक तथा एतिहासिक दोनों ही हो सकता है।
प्रायोगिक भाषा विज्ञान- इसके अन्तर्गत भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन के फलस्वरुप प्राप्त सिद्धान्तों का भाषा के व्यवहारिक उपयोग के क्षैत्र में उपयोग किया जाता है।
जैसे- भाषा की लिखने, सिखाने की विधि , अनुवाद, कार्य, अनुवाद संबंधी मशीन, टाइप तथा मुद्रणें कम्प्युटर में सुधार,्हकलाना, तुतलाना आदि उच्चारण दोषों को दुर करना।
                   भाषा एक संघटना और संघटना के भिन्न भिन्न स्तर होते है। उन विभिन्न स्तर की इकाईयाँ भी भिन्न होती है। वैज्ञानिक अध्ययन में इन इकाईयों की क्रियाशीलता उनका परस्पर संबंध तथा विभिन्न स्तरों में अंतःसंबंध आदि का विश्लेषण किया जाता है। वास्तव में भाषा एक अखण्ड वाक् प्रवाह है। पारमार्थिक दृष्टि से उसमें भेद नही है। परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से विश्लेषण की सुविधा से विभिन्न स्तर भेदों की कल्पना की जाती है। इस तथ्य की पुष्टि भतृहरि ने अपने

‘पदेक वर्णा न विद्यन्ते वाक्यात् पदानां सामयिक विभागः’ वाक्य में की है।

Saturday, 5 April 2014

भाषा के अंग


वर्ण-नाद की लघुतम , अविभाज्य ,व्यवहारार्थ (व्यवहार योग्य) इकाई वर्ण है।
संकेत- सरलता सुक्ष्मता ,स्पष्टता जिनका स्वर की सहायता से ही उच्चारण हो,वह व्यंजन
          स्वयं राजन्ते इति स्वराः ।
संकेत का अर्थ अपेक्षाकृत व्यापक है, प्रायः संकेत तथा संकेतिक में निश्चित संबंध होता है।
जैसे- बच्चे का चित्रवाला वह मोटर चालक को पाठशाला के होने की सुचना देता है । उसे समझने के लिए भाषा विशेष का बोध होना आवश्यक नही है।
प्रतीक- समुदाय विशेष में उसकी इच्छा के अनुभव प्रयुक्त होते है।वे किसी पुर्ण अर्थ को अंश के माध्यम से व्यक्त करते । इनमें प्रतीक तथा प्रतित्य में निश्चित संबंध नही हुवा। जैसे- ‘गाय’ इस शब्द का उच्चारण करने पर केवल उस भाषा समुदाय के लिए ही विशिष्ट प्राणी का अर्थ बोध होता है।
व्यवस्था-ऐसी सुनिश्चित योजनानुसार घटक ईकाइयों और अवयवों के क्रम, संख्या ,प्रकार आदि का निर्धारण हो, उसे व्यवस्था कहते है।
प्रत्येक भाषा में अनन्त ध्वनियों मे से जो कुछ निश्चित ध्वनियों का ही प्रयोग होता है, उन ध्वनियों का क्रम भी निश्चित होता है, उन ध्वनियों के संयोगादि का भी प्रकार निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त पद, पदसमुच्चय , तथा वाक्य रचनादि में भी क्रमबद्धता होती है। यह व्यवस्था समाज के द्वारा निश्चित होती है। व्यवस्था के अन्तर्गत उपव्यवस्थाएँ भे होती है। उस समाज के सभी सदस्य उस निश्चित व्यवस्था से परिचित होते है। तथा उसी के अनुरुप भाषा का व्यवहार करते है। इस प्रकार निश्चित समाज स्वीकार मर्यादा के अन्तर्गत क्रम बद्धता का पुर्व ज्ञान ही भाषा की व्यवस्था का परिचायक है। पूर्व ज्ञान होने के कारण ही भाषा का प्रायोग संभव होता है। तथा इसी के कारण भाषा में सम्प्रेषण अर्थात अर्थ का आदान-्प्रदान सम्भव होता है।

किसी भाषा के शब्द समुह का ही ज्ञान उस भाषा के व्यवहार या प्रयोग के लिए पर्याप्त नही होता ,अर्थात वस्तु या प्राणी आदि के बोधक पदों या शब्दों को जान लेने पर ही उनके विषय में वाण्छित बात नही की जा सकती, जब तक की हमें उस भाषा की व्यवस्था का बोध न हो। इस व्यवस्था को ही संरचना या संघटना कहते है।यह व्यवस्था न केवल वाचिक प्रतीकों की व्यवस्था तक सीमित है, अपितु अपनी सामाजिक अव्यवस्था के अनुरुप अर्थ के स्तर पर भी निश्चित क्रम तथा व्यवस्था होती है। इस तरह हमें अर्थ को भी अपने अभीष्ट कथन के रुप में स्थरीकृत तथा व्यवस्थित करना होता है। इस व्यवस्था का पूर्ण ज्ञान ही हमें उस भाषा के व्यवहार के लिए समर्थ बनाता है।