Friday, 24 January 2014

कारक विभक्ति



                                      प्रथमा-कर्ता कारक
जो किसी काम को करता है, वह कर्ता कारक होता है।
कर्तृ वाच्य मेम कर्ता कारक बतलाने के लिए प्रथमा विभक्ति काम में लाई जाती है।जैसे- राम पढ़ रहा है। यहाँ पर पढ़ने के काम को ‘राम’ कर रहा है, इसलिए ‘राम’ कर्ता कारक हुवा ,- राम कर्ता कारक है-इस बात को बताने के लिए ‘राम’ प्रथमा में रखा जाएगा. –रामः – रामः पठति।इसी प्रकार अश्वाः धावन्ति।आदि।
प्रथमा विभक्ति का उपयोग किसी को सम्बोधन करने के लिए भी होता है। जैसे- बालकाः – है बालकों , कन्याः – हे कन्याओं । इसलिए सम्बोधन को अलग विभक्ति नही मानते।
                             द्वितीया- कर्म कारक
जिसके ऊपर क्रिया का फल पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते है। जैसे- लड़का साँप को मार रहा है।   यहाँ पर मारने का असर साँप के ऊपर पड़ रहा है, इसलिए साँप कर्म कारक हुआ ।
कर्म कारक बतलाने के लिए द्वितीया विभक्ति काम में लाई जाती है- जैसे-
                   रामः फलं खादति। 
                   वयं चित्राणि पश्यामः।
गत्यर्थक धातुओं के योग में द्वितीया होती है।जैसे-
                   गृहं गच्छामि।  वनं विचचार।

Thursday, 16 January 2014

विधेय के विषय में कुछ नियम


उपपद विभक्ति-   बहुत से अवयवों के साथ भी विभक्ति-युक्त संज्ञाओं और सर्वनामों का प्रयोग होता है। ऐसे उदाहरणों को ‘उपपद विभक्ति’ कहते है। जो कि ‘कारक विभक्ति’ से भिन्न होती है। जैसे- नमो नारायणाय, माम् अन्तरा, मामात् उत्तरम् इत्यादि।
                                      विधेय अर्थात जो कुछ कर्ता के विषय में कहा जाय वह क्रिया का रुप धारण कर सकता है, जैसे- रामः पठति, रामः अस्ति। यहाँ विधेय ‘पठति’ और ‘अस्ति’ क्रियाएँ है।
कभी- कभी विधेय संज्ञा शब्द होता है। ऐसी दशा में संज्ञा शब्द अपने मौलिक लिंग में प्रयुक्त होता है। जैसे- जानकी रामस्य जीवितामासीत्। (जानकी श्रीरामजी का जीवन थी)।
          ऐसी परिस्थिति में जब क्रिया प्रत्यक्ष रुप से प्रयुक्त होती है, तो कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार रखी जाती है, जैसे- त्वम् सखा असि{तुम मित्र हो) ध्यान रहे कि क्रिया ‘सखा’ के अनुसार न होगी क्योकि सखा विधेय है, बल्कि क्रिया ‘त्वम्’ के अनुसार होगी ,क्योकि त्वम् कर्ता है।
                   जब ‘’पात्र, आस्पद्, स्थान, पद, प्रमाण, भाजन’’ ये शब्द विधेय के तौर पर प्रयुक्त होते है, तो ये सर्वदा एकवचन , नपुंसकलिंग में होते है, चाहे कर्ता किसी भी लिंग या वचन का हो, क्रिया कर्ता के अनुसार होती है, न कि विधेयस्थानीय संज्ञा के, जैसे- गुणाः पूजास्थानं गुणिषु
(गुणी पुरुषों में गुण ही पूजा के स्थान होते है। ) भवन्तः प्रमाणम् , आप प्रधान पुरुष है। रामः यशसां भाजनम्, राम यश के पात्र है। अएं सर्वेषां निन्दापात्रं अभूवम्(मै सब की निन्दा का पात्र हुआ)        यहाँ पर ‘गुणाः पूजास्थानम् अस्ति’ और ‘अहं सर्वेषां निन्दा पात्रम् अभूत्’ कहना अशुद्ध प्रयोग होगा।
                   सम्बन्धवाचक सर्वनाम के लिंग, वचन, तथा पुरुष वे ही होते है, जो उसके सम्बन्धी शब्द के। संस्कृत के अन्य सर्वनामों की तरह सम्बन्धवाचक सर्वनाम या तो अकेला प्रयुक्त हो सकता है, या विषेशण की भाँति , सम्बन्धवाचक सर्वनाम का प्रयोग पहले होता है, उसके अनन्तर उसका सम्बन्धों ,संज्ञा शब्द, किसी संकेतवाचक सर्वनाम के साथ रखा जाता है, - यं मन्दिरे तीर्थादौ अन्विश्यसि सः भगवान तव ह्रदये एव , जिसको मन्दिर तथा तीर्थ स्थान इत्यादि में खोजते हो, वह भगवान तुम्हारे ह्रदय में ही है।
                             कभी-कभी सम्बन्धों संज्ञा शब्द बिल्कुल ही प्रकट नही किया जाता,जैसे-धिक् तान् ये स्वपितरम् निन्दन्ति, उनको धिक्कार है, जो अपने पिता की निन्दा करते है।
                   जब सम्बन्धवाचक सर्वनाम का विधेय कोई ऐसा संज्ञा पद हो जिसका लिंग अपने सम्बन्धों से भिन्न हो, तो सम्बन्धवाचक सर्वनाम का लिंग तथा वचन विधेय के अनुसार होता है। जैसे- शैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य, जो ठंडक है वही जल की प्रकृति है। यहाँ सम्बन्धवाचक सर्वनाम ‘यत्’ का विधेय ‘शैत्यं’ नपुंसकलिंग है, । ‘शैत्यं’ पद का लिंग उसके सम्बन्धी पद ‘सां प्रकृतिः’ के लिंग से भिन्न है। ऐसी परिस्थिति में ‘यत्’ का लिंग वही होगा जो ‘शैत्यं’ का।

Tuesday, 7 January 2014

कारक-विचार


          
संस्कृत में संज्ञाओं की सात विभक्तियाँ होती है। सर्वनाम-्विचार तथा विशेषण –विचार से भी ज्ञात हो चुका है कि सर्वनाम और विशेषण की भी सात विभक्तियाँ होती है। इन विभक्तियों का क्या प्रयोग होता है, यह अब जानेगे।
                             ‘कारक’ का अर्थ है, ऐसी वस्तु जिसका क्रिया के पुरा करने में काम पड़े।
उदाहरण के लिए ‘अयोध्या में रघु ने अपने हाथ से लाखों रुपये ब्राह्मणों को दान दिए’ इस वाक्य में दान क्रिया के पुरा करने के लिए जिन-जिन वस्तुओं का उपयोग हुवा , वे ‘कारक’ कहलायेगे। दान की क्रिया किसी स्थान पर होती है, । यहाँ ‘अयोध्या’ में हुई, इसलिए ‘अयोध्या’ कारक हुई। इस क्रिया के करने वाले रघु थे, इसलिए ‘रघु’ कारक हुए। यह क्रिया हाथ से पुरी की गई, इसलिए ‘हाथ’ कारक हुआ, ‘रुपये’ दिये गये, इसलिए ‘रुपये’ कारक हुए। और ब्राह्मणों को दिए गये, इसलिए ‘ब्राह्मण’ कारक हुए।
                             क्रिया के पुरा करने के लिये इस प्रकार ६ सम्बन्ध होते है,
क्रिया का करने वाला-  कर्ता
क्रिया का कर्म-           कर्म
क्रिया जिसके द्वारा पुरी हो- करण
क्रिया जिसके लिए हो-  सम्प्रदान
क्रिया जिससे निकले, या जिससे अलग हो- अपादान
क्रिया जिस स्थान पर हो- अधिकरण
                             इस प्रकार कर्तृ, कर्म, करण,सम्प्रदान,अपादान,  और अधिकरण ये ६ कारक हुए। इन्हीं कारकों के व्यवहार में विभक्तियाँ आती है। हिन्दी में सम्बन्ध को भी एक कारक बताया जाता है।
क्रिया से जिसका सीधा सम्बन्ध होता है, वही कारक कहलाता है,  -गोविन्द के लड़के गोपाल को श्याम ने पीटा, - इसमें पीटना क्रिया का सीधा सम्बन्ध गोपाल (जिसको पीटा) और श्याम (जिसने पीटा) से है, गोविन्द से कुछ भी सम्बन्ध नही है, इसलिए ‘गोविन्द के’ को कारक नही कह सकते, गोविन्द का सम्बन्ध गोपाल से है, किन्तु पीटने की क्रिया के पुरा करने में उसकी (गोविन्द की) कोई आवश्यकता नही पड़ती।                                                              

Thursday, 2 January 2014

विशेषण-विचार



हिन्दी में कभी- भी तो विशेष्य के लिंग और वचन के अनुसार  विशेषण बदलता है, जैसे- अच्छा लड़का, अच्छे लड़के, अच्छी लड़की, अच्छी लड़कियाँ,  किन्तु बहुधा नही बदलता,जैसे- लाल घोड़ी, लाल घोड़ा , लाल घोड़ियाँ । संस्कृत में लिंग, वचन, और विभक्ति के अनुसार विशेषण का रुप हमेशा बदलता है। जिस लिंग, जिस वचन, जिस विभक्ति का विशेष्य होता है , उसी लिंग, उसी वचन और उसी विभक्ति का विशेषण भी होता है। यहाँ तक कि ऐसे विशेष्यों के साथ भी विशेषण बदलता है, जो लिंग के लिए भिन्न रुप नही रखते। किन्तु जिनके लिंग ,प्रकरण आदि से मालुम हो जाते है।क्या हिन्दी में ‘मैं सुन्दर हुँ’ । इस वाक्य का अनुवाद संस्कृत में ‘अहं सुन्दरः अस्मि’ और ‘अहं सुन्दरां अस्मि’ इन दोनों वाक्यों में होगा। यदि बोलने वाला पुरुष है तो प्रथम वाक्य, प्रयोग में आयेगा, और यदि वह स्त्री है, तो दूसरा वाक्य। हिन्दी में  विशेषणों के साथ अलग विभक्तिसुचक परसर्ग (आ, मै, आदि) नही लगाये जाते, जैसे- पड़े-लिखे मनुष्यों का आदर होता है। इस वाक्य में ‘का’ शब्द केवल ‘मनुष्यों ‘के उपरान्त लगाया गया है। विशेषण ‘पड़े’ ‘लिखे’ के उपरान्त नही । परन्तु संस्कृत में विशेषण और विशेष्य दोनों में विभक्तियाँ लगती है। ऊपर के वाक्य का अनुवाद होगा –शिक्षितानां मनुष्यानां आदरः क्रियते’ ।(अथवा भवति) । इसी प्रकार संज्ञा की तरह संस्कृत में विशेषण के भी लिंग, वचन, और विभक्ति के भिन्न –भिन्न रुप होते है।कुछ संख्यावाची विशेषण शत, विंशति, त्रिशत,आदि जिनके रुप सब लिंगों में एक ही वचन में होते है, विशेष्य के लिए और वचन के अनुसार नही बदल सकते, किन्तु विभक्ति के अनुसार बदलते है।