Thursday, 16 January 2014

विधेय के विषय में कुछ नियम


उपपद विभक्ति-   बहुत से अवयवों के साथ भी विभक्ति-युक्त संज्ञाओं और सर्वनामों का प्रयोग होता है। ऐसे उदाहरणों को ‘उपपद विभक्ति’ कहते है। जो कि ‘कारक विभक्ति’ से भिन्न होती है। जैसे- नमो नारायणाय, माम् अन्तरा, मामात् उत्तरम् इत्यादि।
                                      विधेय अर्थात जो कुछ कर्ता के विषय में कहा जाय वह क्रिया का रुप धारण कर सकता है, जैसे- रामः पठति, रामः अस्ति। यहाँ विधेय ‘पठति’ और ‘अस्ति’ क्रियाएँ है।
कभी- कभी विधेय संज्ञा शब्द होता है। ऐसी दशा में संज्ञा शब्द अपने मौलिक लिंग में प्रयुक्त होता है। जैसे- जानकी रामस्य जीवितामासीत्। (जानकी श्रीरामजी का जीवन थी)।
          ऐसी परिस्थिति में जब क्रिया प्रत्यक्ष रुप से प्रयुक्त होती है, तो कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार रखी जाती है, जैसे- त्वम् सखा असि{तुम मित्र हो) ध्यान रहे कि क्रिया ‘सखा’ के अनुसार न होगी क्योकि सखा विधेय है, बल्कि क्रिया ‘त्वम्’ के अनुसार होगी ,क्योकि त्वम् कर्ता है।
                   जब ‘’पात्र, आस्पद्, स्थान, पद, प्रमाण, भाजन’’ ये शब्द विधेय के तौर पर प्रयुक्त होते है, तो ये सर्वदा एकवचन , नपुंसकलिंग में होते है, चाहे कर्ता किसी भी लिंग या वचन का हो, क्रिया कर्ता के अनुसार होती है, न कि विधेयस्थानीय संज्ञा के, जैसे- गुणाः पूजास्थानं गुणिषु
(गुणी पुरुषों में गुण ही पूजा के स्थान होते है। ) भवन्तः प्रमाणम् , आप प्रधान पुरुष है। रामः यशसां भाजनम्, राम यश के पात्र है। अएं सर्वेषां निन्दापात्रं अभूवम्(मै सब की निन्दा का पात्र हुआ)        यहाँ पर ‘गुणाः पूजास्थानम् अस्ति’ और ‘अहं सर्वेषां निन्दा पात्रम् अभूत्’ कहना अशुद्ध प्रयोग होगा।
                   सम्बन्धवाचक सर्वनाम के लिंग, वचन, तथा पुरुष वे ही होते है, जो उसके सम्बन्धी शब्द के। संस्कृत के अन्य सर्वनामों की तरह सम्बन्धवाचक सर्वनाम या तो अकेला प्रयुक्त हो सकता है, या विषेशण की भाँति , सम्बन्धवाचक सर्वनाम का प्रयोग पहले होता है, उसके अनन्तर उसका सम्बन्धों ,संज्ञा शब्द, किसी संकेतवाचक सर्वनाम के साथ रखा जाता है, - यं मन्दिरे तीर्थादौ अन्विश्यसि सः भगवान तव ह्रदये एव , जिसको मन्दिर तथा तीर्थ स्थान इत्यादि में खोजते हो, वह भगवान तुम्हारे ह्रदय में ही है।
                             कभी-कभी सम्बन्धों संज्ञा शब्द बिल्कुल ही प्रकट नही किया जाता,जैसे-धिक् तान् ये स्वपितरम् निन्दन्ति, उनको धिक्कार है, जो अपने पिता की निन्दा करते है।
                   जब सम्बन्धवाचक सर्वनाम का विधेय कोई ऐसा संज्ञा पद हो जिसका लिंग अपने सम्बन्धों से भिन्न हो, तो सम्बन्धवाचक सर्वनाम का लिंग तथा वचन विधेय के अनुसार होता है। जैसे- शैत्यं हि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य, जो ठंडक है वही जल की प्रकृति है। यहाँ सम्बन्धवाचक सर्वनाम ‘यत्’ का विधेय ‘शैत्यं’ नपुंसकलिंग है, । ‘शैत्यं’ पद का लिंग उसके सम्बन्धी पद ‘सां प्रकृतिः’ के लिंग से भिन्न है। ऐसी परिस्थिति में ‘यत्’ का लिंग वही होगा जो ‘शैत्यं’ का।

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