Thursday, 27 February 2014

स्वर-प्रक्रिया



अन्धकारे दीपिकाभिर्गच्छन् स्खलन्ति क्वचित्
एवं स्वरै प्रतीचानां भक्त्यर्थम् स्फुटन्ति।
                   जिस प्रकार अन्धकार में दीपिका की सहायता से चलता हुवा व्यक्ति कही ठोकर खाता, उसी प्रकार स्वरों की सहायता से किए गए अर्थ स्फुट (सन्देह रहित) होते है।
उदात्तादि स्वरों की सत्ता वैदिक भाषा की विशेषता है। वेद के वास्तविक अभिप्राय तक पहुँचने के जितने साधन है, उनमें स्वर-शास्त्र सबसे प्रधान है। व्याकरण और निरुक्त जैसे प्रमुख शास्त्र भी स्वर-शास्त्र के अंग बनकर ही वेदार्थ ज्ञान में सहायक होते है। स्वर शास्त्र का विरोध होने पर ये दोनों शास्त्र पंगु बने रहते है। स्वर ज्ञान के बिना न केवल मंत्र का वास्तविक अभिप्राय ही अज्ञात रहता है, अपितु स्वर शास्त्र की उपेक्षा से अनेक स्थानों में अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। इसलिए वेद के सूक्ष्मांतक अभिप्राय तक पहुँचने के लिए उदात्त आदि स्वरों का ज्ञान नितांत आवश्यक है।
                   स्वर शब्द लौकिक और वैदिक वाड़्मय में भिन्न अर्थो में प्रयुक्त होता है। वाक् वर्ण विशेष अत्+ऋणादि संगीत शास्त्र के स्वर यण , प्राण, सूर्य , प्रणव, उदात्तादि ध्वनि विशेष प्रस्तुत संदर्भ में स्वर शब्द से वैदिक वाड़्मय में प्रसिद्ध उदात्त, अनुदात्त , स्वरित संज्ञक उच्चारण विषयक वर्ण वर्गो का ग्रहण होता है।
                   वैदिक वाड़्मय में उदात्त आदि स्वरों के अनेक भेद उल्लिखित है, कहीं सात, कहीं पाँच , कहीं चार, कहीं तीन ,कहीं दो और कहीं एक ही स्वर का उल्लेख मिलता है। महाभाष्य में सात स्वर गिनाये गए है। नाटक शिक्षा में ५स्वर ।
                   उदात्ताश्चानुदात्तश्चस्वरितप्रचितोतथा
                   निपातश्चेति विधेय स्वरभेदस्तु पंचमः।
साधारणतया निपात शब्द अनुदात्त अर्थ में प्रसिद्ध है,  शाकव, माध्यन्दित , कण्व, कौथुम, आदि संहिताओं में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों का ही उच्चारण होता है। प्रचय स्वर का भी उल्लेख है।
                             स्वर शास्त्र के अनुसार उदात्त आदि समस्त स्वर उच्चारण वर्ण स्वर अर्थात् अच् संज्ञक वर्णो के धर्म है, व्यंजनों के नही। अच् ही ऐसे वर्ण हैजिनका उच्चारण बिना अन्य वर्ण की सहायता के होता है, स्वयं सजन्त इति स्वराः। महाभाष्य  ।१।२।३०
                             उदात्त अनुदात्त और स्वरित स्वरों के लक्षण और उनके उच्चारण की विधि का उल्लेख अनेक ग्रंथों में मिलता है। पाणिनीय मत-
                                      उच्चैः उदात्तः , नीचैः अनुदात्तः, समाहारः स्वरितः ।
जिस स्वर के उच्चारण में आयाम हो, उसे उदात्त कहते है,  आयाम का अर्थ है, मात्रों का स्वर की तरफ खींचा जाना ।जिस स्वर के उच्चारण में विलंब हो, उसे अनुदात्त कहते है। मात्रों की शिथिलता या उनका अधोगमन विश्राम कहलाता है । जिस स्वर के उच्चारण में आक्षेप हो, उसे स्वरित कहते है, आक्षेप का अर्थ है- मात्रों का निचैरगमन।  इस प्रकार के निर्देशन के आधार पर ही शुद्ध उच्चारण कर पाना कठिन ही है। इन स्वरों का सुक्ष्म उच्चारण प्रकार चिरकाल से लुप्तप्राय है, महाराष्ट्र में कुछ बृहद् ऋग्वेदीय ब्राह्मण स्वरों के सूक्ष्म उच्चारण में कदाचित् समर्थ होते, परन्तु अधिकतर श्रोत्रिय हस्त आदि अंगचालन के द्वारा ही उदात्त आदि स्वरों का द्योतन करते है।

Wednesday, 12 February 2014

समास-विचार


         
समास शब्द का अर्थ है ‘संक्षेप’ में कहना। अर्थात् दो या दो से अधिक शब्दों को इस प्रकार साथ रख देना कि उनके आकार में कुछ कमी हो जाय, और अर्थ भी पुरा पुरा मालुम हो। जैसे-
सभायाः पति =सभापति
समस्त पद -  यहाँ सभापति का वही अर्थ है जो ‘सभायाः पति’ का ।किन्तु दोनों को साथ रख देने से ‘सभायाः’ शब्द के विभक्ति सूचक प्रत्यय याः का लोप हो गया, और इस कारण ‘सभापति’ शब्द सभायाः पति से छोटा हो गया। इस प्रकार छोटा बनाकर रक्खे हुए शब्द को ‘समस्त पद’ कहते है।
विग्रह – किसी समस्त पद को तोड़कर उसका पहले का रुप दे देना ‘विग्रह’ कहलाता है। विग्रह का अर्थ है- टुकड़े-टुकड़े करना । समस्त शब्द के टुकड़े करके ही पहले का रुप दिखाया जा सकता है। इसलिए यह विग्रह है।जैसे- धनवाली का विग्रह ‘धनस्य वाली’ हुआ ।
                   किन शब्दों को कैसे और किन के साथ जोड़ सकते है, इसके सूक्ष्म से भी सूक्ष्म नियम संस्कृत के व्याकरणकारों ने निश्चित किए है। एसा नही है कि जिस शब्द को जब चाहा तब दुसरे के साथ जोड़ दिया । जैसे- ‘रघुवंश का लेखक कालिदास प्रसिद्ध कवि था’ – इस वाक्य का अनुवाद हुवा- ‘रघुवशंस्य लेखकः कालिदासः प्रसिद्धः कविः आसीत’ – इस संस्कृत वाक्य में यदि समास करे तो इस प्रकार होगा ‘रघुवंशलेखककालिदासः प्रसिद्धकविः आसीत्’  । कविः आसीत् में समास नही हुवा , ‘कालिदासः’ और ‘प्रसिद्धः’ में समास नही हुवा।
समास के ६ भेद है- १.तत्पुरुष २ कर्मधारय ३. द्वन्द ४. बहुब्रीहि ५. अव्ययीभाव ६ द्विगु
इन भेदों के नाम पर प्रस्तुत श्लोक है-
                   द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद् गेहे नित्मव्ययीभावः ।
                   तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यान्बहुब्रीहिः ॥
यह किसी याचक की किसी दाता से प्रार्थना है- मैं द्वन्द हूँ अर्थात् मैं दो हूँ (मैं और मेरी स्त्री) मैं द्विगु भी हूँ अर्थात् मेरी दो गाएँ (बैल) भी है।मेरे घर में नित्य अव्ययीभाव रहता है, अर्थात् मेरे घर में कभी कुछ खर्च नही होता । क्योंकि खर्च करने को द्रव्य ही नही। इसलिए है पुरुष  वह काम करो जिससे मैं बहुब्रीहि हो जाऊँ । अर्थात् मेरे घर में बहुत सा धान्य हो जाए। ब्रीहि का अर्थ धान्य है।
                            

Wednesday, 5 February 2014

कारक-विभक्ति


                                      पंचमी- अपादान कारक
जिससे कोई वस्तु अलग हो, उसे अपादान कारक कहते है, जैसे- पेड़ से पत्ता गिरता है।
यहाँ ‘पेड़’ अपादान है, । राम गाँव से चला आया। यहाँ ‘गाँव’ अपादान है।
जिस गुरु या अध्यापक या मनुष्य से कोई चीज नियमपुर्वक पढ़ी जाती है, अथवा मालुम की जाती है, वह गुरु या अध्यापक अन्य मनुष्य पादान होता है। जैसे-
उपाध्यायात् अधीते। अध्यापकात् गणितं पठति।
जिसके कारण डर मालुम हो, अथवा जिसके डर के कारण रक्षा करनी हो, उस कारण को अपादान कहते है। जैसे-  चौरात् बिभेति।  सर्पात् भयम्। 
                                      षष्ठि- सम्बन्ध कारक
दो या दो से अधिक संज्ञा शब्दों में अथवा सर्वनाम तथा संज्ञा शब्दों में जो सम्बन्ध होता है, उसे दिखलाने के लिए षष्ठि विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे- राज्ञः भृत्यः । इसमें राजा और नौकर में सम्बन्ध है,  इसी प्रकार रामस्य पुस्तकानि , गोविन्दस्य पुत्रः ।
                                      सप्तमी-अधिकरण कारक
जिस स्थान पर कोई कार्य होता है, उसे अधिकरण कहते है, जैसे- वह पाठशाला में पुस्तक पढ़ता है, ,यहाँ ‘पाठशाला’ अधिकरण है।
जिस समय कोई कार्य सम्पन्न होता है, वह समय सप्तमी में रखा जाता है। शैशवे वेदमपठम्।
जब किसी कार्य के हो जाने पर दूसरे कार्य का होना प्रतीत होता है, तो जो कार्य पहले हो चुका होता है, उसमें सप्तमी होती है। जैसे-
सूर्ये अस्तं गते गोपाः गृहम् अगच्छन्।
रामे वनं गते दशरथः प्राणान् अत्यजत्।
प्रेम, आसक्ति, या आदरसुचक शब्दों में सप्तमी होती है,  जिसके प्रति प्रेम, आसक्ति अथवा आदर प्रदर्शित किया जाता है, ।जैसे- बालके अस्मिन स्निह्यति। शिवे मम् महान् अभिलाषा।  

Saturday, 1 February 2014

कारक-विभक्ति


तृतीया-करण कारक
जिसकी सहायता से कर्ता अपना काम पुरा करता है, उसे करण कारक कहते है। जैसे-
वह तलवार से शत्रु को मारता है। यहाँ पर मारने वाला आदमी ‘तलवार’ की सहायता से अपना काम पुरा करता है, इसलिए तलवार करण कारक हुई।
प्रकृति आदि अर्थो में तृतीया होती है। जैसे- प्रकृत्या दयालुः।   नाम्ना श्यामो अयम्।   सुखेन जीवति।      सह, साकं, सार्थम्, समं , इनके प्रयोग में तृतीया होती है। पुत्रेण सह पिता गच्छति।
                                      चतुर्थी- सम्प्रदान कारक
जिसे कोई चीज दी जाय, या जिसके वास्ते कोई काम किया जाय, उसे सम्प्रदान कारक कहते है। जैसे- ब्राह्मण को गाय देता है।  यहाँ पर ब्राह्मण सम्प्रदान है।
क्रुध्, द्रुह्, ईर्ष्य, असूय, धातुओं के योग में तथा इन धातुओं के समान अर्थ रखने वाली धातुओं के योग में जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है, वह सम्प्रदान समझा जाता है। जैसे-
स्वामी भृत्याय क्रुध्यति।
सीता रावणाय अक्रुध्यत्।
दुर्योधनः पाण्डवेभ्यः ईर्ष्यति ।
जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाता है, उसमें चतुर्थी होती है।
मुक्तये हरिं भजति।
नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा , अलम् शब्दों के योग में चतुर्थी होती है।
जैसे- तस्मै श्री गुरवे नमः।   रामाय नमः।  अग्नये स्वाहा ।  प्रजाभ्यः स्वस्ति।  स्वस्ति भवते।