तृतीया-करण कारक
जिसकी सहायता से कर्ता अपना काम पुरा करता है, उसे
करण कारक कहते है। जैसे-
वह तलवार से शत्रु को मारता है। यहाँ पर मारने वाला
आदमी ‘तलवार’ की सहायता से अपना काम पुरा करता है, इसलिए तलवार करण कारक हुई।
प्रकृति आदि अर्थो में तृतीया होती है। जैसे- प्रकृत्या
दयालुः। नाम्ना श्यामो अयम्। सुखेन जीवति। सह, साकं, सार्थम्, समं , इनके प्रयोग में तृतीया
होती है। पुत्रेण सह पिता गच्छति।
चतुर्थी-
सम्प्रदान कारक
जिसे कोई चीज दी जाय, या जिसके वास्ते कोई काम किया
जाय, उसे सम्प्रदान कारक कहते है। जैसे- ब्राह्मण को गाय देता है। यहाँ पर ब्राह्मण सम्प्रदान है।
क्रुध्, द्रुह्, ईर्ष्य, असूय, धातुओं के योग में
तथा इन धातुओं के समान अर्थ रखने वाली धातुओं के योग में जिसके ऊपर क्रोध किया जाता
है, वह सम्प्रदान समझा जाता है। जैसे-
स्वामी भृत्याय क्रुध्यति।
सीता रावणाय अक्रुध्यत्।
दुर्योधनः पाण्डवेभ्यः ईर्ष्यति ।
जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाता है, उसमें
चतुर्थी होती है।
मुक्तये हरिं भजति।
नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा , अलम् शब्दों के योग
में चतुर्थी होती है।
जैसे-
तस्मै श्री गुरवे नमः। रामाय नमः। अग्नये स्वाहा । प्रजाभ्यः स्वस्ति। स्वस्ति भवते।
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